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रिश्वत नहीं, तो पानी भी नहीं

इसाबेल पिमेन्टा प्रभात खबर की पाठक ने यह पत्र भेजा है, जो अशोक नगर में रहती हैं और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इन्होंने बताया कि कैसे पहले समस्या खड़ी की जाती है और फिर समस्या खड़ी करनेवाले ही उसे सुलझाने के लिए रिश्वत की भी मांग करते हैं. सोसाइटी ने भी इसे स्वीकार कर लिया है […]

इसाबेल पिमेन्टा
प्रभात खबर की पाठक ने यह पत्र भेजा है, जो अशोक नगर में रहती हैं और सामाजिक कार्यकर्ता हैं. इन्होंने बताया कि कैसे पहले समस्या खड़ी की जाती है और फिर समस्या खड़ी करनेवाले ही उसे सुलझाने के लिए रिश्वत की भी मांग करते हैं. सोसाइटी ने भी इसे स्वीकार कर लिया है और इसका विरोध नहीं होता.
सालाना मॉनसून की बारिश से निबटने के मामले में रांची असहाय रही है. जल-निकासी की समुचित व्यवस्था की जरूरत के मद्देनजर आखिरकार शहर में कुछ निर्माण-कार्य शुरू हुआ है जिसमें अशोक नगर का वह इलाका भी शामिल है, जहां मैं रहती हूं. बहरहाल, इस स्वागत-योग्य पहल से सरकारी व्यवस्था की बहुत सी कमियां भी उजागर हुई हैं और यह भी जाहिर हुआ है कि कैसे कोई ‘अवसर चोरी के मौके में’ तब्दील हो जाता है. भारत के गली-कूचों में निर्माण-कार्य कभी भी सीधा-सादा मामला नहीं रहा .

कुछ ही दिन पहले की बात है. नींद टूटते ही मेरी नजर घर के सामने बने गढ्ढे पर गयी और मैंने भांप लिया कि परेशानी खड़ी होने वाली है. गढ्ढे के आर-पार लकड़ी का एक हिलता हुआ पटरा बिछा था और नलके में पानी नहीं आ रहा था. कोई उम्मीद तो यही करेगा कि जलापूर्ति सरीखी अनिवार्य सेवा तत्काल बहाल हो जायेगी, लेकिन पूरा एक दिन गुजर गया और पानी नहीं आया. सड़क की खुदाई से टूटी पड़ी पानी की नलियों को यथास्थान लगाने के लिए अगली सुबह मुझसे एक मिस्त्री ने 1000 रुपये मांगे. मैं सकपका गयी. मुझे उसकी बात में कोई तुक नजर नहीं आया. आखिर, मैंने जिस चीज को तोड़ा नहीं, उसे जोड़ने के लिए कोई रकम क्यों दूं? मुझे पता चला कि काम पर लगे मिस्त्री पानी की पाइप को काटकर बेचते हैं ताकि कुछ ऊपरी आमदनी हो जाये. मैंने जितने पड़ोसियों से बात की, सबने पानी की आपूर्ति बहाल कराने के लिए अपनी जेब ढीली की थी. सबने मुझे चेताया कि वाटर-कंपनी के पास शिकायत की, तो सुनवाई में बड़ा समय लगेगा. मैंने अभी के अभी रिश्वत नहीं दी, तो पता नहीं मुझे कितने दिन बिना पानी के रहना पड़े. मेरे बहुत-से पड़ोसी यह मानने को तैयार नहीं थे कि मिस्त्री की मांग भ्रष्टाचार का मामला है. वे बात के नैतिक पक्ष को समझने और यह देखने में असफल थे कि यह तो सीधे-सीधे ठगी और चोरी का मामला है.

उन्होंने कहा- ‘ये मजूरे तो गरीब हैं, आपके पास पैसे हैं, उन्हें दे क्यों नहीं देतीं?’. कुछ ऐसे भी थे जो बहस में पड़ना ही नहीं चाहते थे: ‘पानी जरूरी है, तो फिर ये मिस्त्री इस मौका का फायदा उठाते हुए रुपये-पैसे की मांग करेंगे ही’. ऐसे लोग मान लेते हैं कि रिश्वतखोरी संस्थागत है और किसी काम को करवाने का सबसे आसान तरीका है रिश्वत खिलाना. लेकिन मैंने चुनौती उठाने की ठान ली. पड़ोसी (जिसने रिश्वत दी थी) से दो बाल्टी लेकर मैंने अपना काम चलाया और एक मित्र की मदद से फोन करना शुरू किया. सबसे पहले मैंने शहरी विकास मंत्री सीपी सिंह के दफ्तर को फोन किया. वहां से जवाब मिला कि रांची के चीफ एक्जिक्यूटिव ऑफिसर से बात कीजिए. यहां से अशोकनगर को-ऑपरेटिव सोसायटी से बात करने को कहा गया. इसके बाद कहा गया कि पब्लिक हेल्थ इंजीनियरिंग डिपार्टमेंट के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर से बात कीजिए. साइट इंजीनियर, रोड इंजीनियर हर जगह फोन घुमाने पर उत्तर यही मिला कि ‘सॉरी मैम! हम कुछ नहीं कर सकते, यह हमारी गलती नहीं है. ‘ इस अनुभव से यह भी उजागर हुआ कि सरकारी संस्थान कैसी बिखरी दशा में हैं. आखिरकार, दो दिन तक फोन घुमाने के बाद सड़क का ठेकेदार पहुंचा और बिना कोई रकम लिए उसने दो घंटे में पानी की आपूर्ति बहाल करवा दी. परेशानी उठाने के लिए मुझसे क्षमा याचना भी की. उन लोगों को इस बात की जानकारी नहीं थी कि रिश्वत की मांग की गई है, हालांकि मैंने जितने अधिकारियों को फोन किया था, उन्हें ‘ठगी’ के बारे में बता दिया था.

जहां तक मेरी जानकारी है, पैसा मांगनेवाले मिस्त्री की न तो पहचान की जा सकी और न ही उसे कोई दंड मिला. यह स्थिति चलती रही, तो ठगी जारी रहेगी. जहां तक जेब इजाजत देगी, रांची के निवासी रिश्वत देते रहेंगे ताकि उन्हें बगैर पानी के न रहना पड़े. आशा बस इतनी भर है कि लोगों की मानसिकता में बुनियादी बदलाव आयेगा और वे रुपये की इस मांग को अनैतिक मानकर अपने हक के लिए उठ खड़े होंगे.

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