‘अादिवाणी प्रकाशन’ की संस्थापक – निदेशक, रुबी हेम्ब्रम एक कार्यक्रम के सिलसिले में रांची में थी़ं संताली मूल की रुबी 2012 से ही आदिवासी लेखकों को मंच दे रही है़ं अपने सपनों को पंख देने के लिए कोलकाता के लामार्टीनियर में स्कूल की पढ़ाई करने वाली इस लॉ ग्रैजुएट ने आइबीएम की नौकरी भी छोड़ी है़ उनसे कई मुद्दों पर प्रभात खबर के संवाददाता मनोज लकड़ा ने बातचीत की.
प्रकाशन के क्षेत्र से कैसे जुड़ीं?
उन दिनाें मैं अंगरेजी संवाद की कुछ पुस्तकों में सुधार कर रही थी़ जानती थी कि उनके पन्नों पर क्या रहेगा, पर यह नहीं मालूम था कि वे पन्ने जीवंत कैसे होंगे़ तभी मालूम हुआ कि सीगल स्कूल ऑफ पब्लिशिंग द्वारा कोलकाता में चार महीने का कोर्स चलाया जा रहा है़ यह 2012 की बात है़ इस कोर्स में उन लोगों से बातचीत भी शामिल थी, जो लेखन, प्रकाशन और मुद्रण कार्य से जुड़े थे़ इस क्रम में महिला विषयों पर काम करने वाली उर्वशी बुटालिया और दलितों के लिए लिखने वाले एस आनंद से मिलने का अवसर मिला़ पर, यह दुखद सच भी सामने आया कि इन क्षेत्रों में आदिवासियों का कोई प्रतिनिधत्व नहीं था़ आदिवासी होने के नाते यह चिंता की बात थी़
किताबें अंगरेजी में क्यों?
मुझे पता था कि छोटे स्तर पर आदिवासी व क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशन हो रहे थे, पर इसका अर्थ यह भी था कि हमारी कहानियां हमारे बीच, उन लोगों तक ही सीमित थीं जो इन भाषाओं को समझ-पढ़ सकते थे़ यह क्षेत्रीय स्तर पर भी पर्याप्त नहीं था, पूरे देश के स्तर तक सुना जाना तो दूर की बात थी़ मैं इससे अधिक चाहती थी़ हमारी बातें पूरी दुनिया के सामने आनी चाहिए़ मुझे पता नहीं था कि यह कौन और कैसे करेगा? तभी मैंने निर्णय लिया कि यह मुझे ही करना है़ मैंने तीन बातें तय की – संप्रेषण के ऐसे माध्यम का प्रयोग करना है, जिसकी पहुंच वैश्चिक होगी़ यह सुनिश्चित करना है कि आदिवासी आवाज को समुचित प्रतिनिधत्व मिलेगा और हमारे प्रकाशन अच्छी गुणवत्ता वाले और वाजिब कीमत के होंगे़ देशज ज्ञान व अनुभवों को साझा कराना चाहती हूं
किसे प्रकाशित करते हैं?
हम हर उस आदिवासी की बात को सामने लाते हैं, जिसके पास कहने के लिए कुछ है़ लिखनेवाले ने यदि आदिवासी भाषा या क्षेत्रीय भाषा में लिखा है, तो उसका अनुवाद कराते हैं और अपने प्रकाशन को द्वि-भाषायी बनाते है़ं आदिवासी लेखकों के लिए यह जरूरी नहीं कि वे सिर्फ आदिवासी विषयों पर ही लिखे़ं वे किसी भी विषय पर लिख सकते है़ं प्रकाशन शुरू करने के तीन साल बाद हमने ‘वन आॅफ अस’ सिरीज शुरू की है़ इसमें वैसे गैर आदिवासी लेखकों को शामिल किया जायेगा, जो हमारे सवालों से गहराई से जुड़े है़ं प्रो संजय बसु मल्लिक की पुस्तक सिल्वन टेल्स : स्टोरीज फ्राॅम द मुंडा कंट्री इस कड़ी की पहली पुस्तक है़