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डायर जिंदा है…डायर जिंदा है

राजलक्ष्मी सहाय बाग के गेट पर पहुंचे दोनों. दादा ने जूते खोल दिये. बना कहे भगत ने भी जूते उतार दिये. दादा ने कहा – ‘इसी जगह पर डायर खड़ा था. बंदूकें चलवा रहा था. वीभत्स रस का साक्षात स्वरूप. झमाझम गोलियों की बारिश. डायर का फायर- हा-हा-हा. सुखविंदर की पकी दाढ़ी हिलने लगी. रोते […]

राजलक्ष्मी सहाय

बाग के गेट पर पहुंचे दोनों. दादा ने जूते खोल दिये. बना कहे भगत ने भी जूते उतार दिये. दादा ने कहा – ‘इसी जगह पर डायर खड़ा था. बंदूकें चलवा रहा था. वीभत्स रस का साक्षात स्वरूप. झमाझम गोलियों की बारिश. डायर का फायर- हा-हा-हा. सुखविंदर की पकी दाढ़ी हिलने लगी.

रोते थे या हंसते थे पता न चला भगत को. उनका हंसना-रोना एक जैसा लगता था. मानो महायोगी का स्वर हो. इतना रो चुके थे कि हंसना भी क्रंदन का एहसास दिलाता.बाग के भीतर जाते ही भगत के जेहन में सनसनाहट सी हुई. कलेजा धक-धक करने लगा. दीवार पर गोलियों के निशान अब भी ज्यों के त्यों. मानो खून के सूखे धब्बे हों. ये निशान शहीद बना गये थे मरते -मरते. गोलियों से बनी चित्रकारी कई सप्तऋषि तारों के झुंड बनाती सी लगी. कोई आवाज नहीं थी – मगर पूछा भगत ने- ये कैसी आवाज है जो दिमाग में तूफान मचा रही है?

– यह सन्नाटे की आवाज है – क्रांति की आवाज है. मातमी धुन बजा रहे हैं ये पेड़ – सुन रहे हो भगत? नजर उठा कर एक पेड़ को देखा भगत ने. पत्ते स्थिर नजर आते थे, मगर-सांय-सांय से कान फटा जाता था. दादा बोले – ‘इसी वृक्ष पर जान बचाने के लिए लोग चढ़ते अौर बेजान पके फल की तरह टपक कर बिखर जाते. भगत की आंखें फटी की फटी थीं. बिना पलक झपके एकटक देख रहा था. जमीन पर सूखी घास का ढेर अौर कंटीली झाड़ियों के कंटीले फूल देख कर भगत ने पूछा – -‘ यहां अच्छेवाले फूल क्यों नहीं लगाये जाते दादा?’ -‘ यह मौत का बाग है.

अच्छे फूल कैसे उगेंगे?’चलते-चलते दोनों उस कुएं के निकट पहुंचे. सूखा कुआं था. भगत ने कुएं में झांका. एक तेज गंध आयी. बकरे कटने वाली गली में गुजरते हैं वैसी ही गंध. उबकाई सी लगी उसे. दादा ने बताया कि यह गंध क्रांति की गंध थी. कुएं में शहीदों का इतना रक्त था कि अब भी बारिश होने पर लाल रंग उतरने लगता है. भगत की जुबान तालू से सट गयी थी. केवल सांसे चलती थी जोर-जोर. कुएं के पास बैठ गये दादा. भगत भी बैठ गया. जेब से अपनी मां की परांदी निकाल कर सुखविंदर ने पोते के हाथ में थमा दिया.-‘यह क्या है दादा?’-‘मेरी मां की चोटी की परांदी है. इसी जगह पर गिरी मिली थी.

इसे ही लेकर मैं घर गया था’ भगत के हाथ कांपने लगे थे. आसमान ताकते हुए कह रहे थे दादा -‘ मुल्क आजाद हुआ मगर खंडित आजादी मिली. बंटवारे का ऐलान होते ही दंगा भड़का. हमारे घर को घेर लिया था दंगाइयों ने. आग लगा दी. मैं फिर भाग कर जालियांवाला गया था. इसी कुएं में तीन दिनों तक छिपा रहा. भूख में सूखी घास चबाया. तुम्हारी दादी तुलसी के चबूतरे पर अधजला सर लिए पड़ी थी. तुम्हारे पिता को बचाने के लिए वहीं पड़ी पानी भरी बाल्टी में डुबो कर खुद लपटों में झुलस कर रह गयी. डायर जिंदा था – मरा नहीं था सुन रहा था भगत. दिमाग में हथौड़े से चल रहे थे. दादा ने कहा -‘तुम्हारे बाप को पानी से निकाला. सांस चल रही थी. शरणार्थी शिविरों की खाक छानता रहा. अौर किसी बच्चे का पता न चला. तुम्हारे बाप को पालना चुनौती थी. पानी में रोटी भिगोकर – पीस कर पिलाता था उसे.

वक्त को तपा कर बनाया है उसे इंसान. आज भी देखते हो – फौलाद का बना लगता है. उसकी बटालियन को कितना अभिमान है उस पर.’ अंधेरा छाने लगा था. स्याह होती शाम में भगत देख रहा था-‘जालियांवाला बाग की दीवारों के निशान सितारों की भांति चमक रहे थे. बाग की माटी से चंदन की खुशबू उड़ रही थी. एक-एक पेड़ अौर एक झाड़ी से इंकलाब का शोर उठ रहा था. कुएं से लपटें उठ रही थीं.’भगत ने अपनी आंखें बंद कर लीं. दादा का कुरता खींचता बाहर निकलने लगा. दादा ने उसका हाथ झटक दिया- ‘अभी ठहरो भगत’‘क्यों दादा?’ रात होने दो – इंकलाब के दीवाने जगेंगे.

उनकी सभा होगी – फिर गोलियां बरसेंगी – आवाम को भागने का रास्ता नहीं. गोली खानी है – मरना है – लाशें पटेंगी’. हर रोज यह तमाशा होता है.’ ‘उस डायर का क्या हुआ दादा?’- उस डायर को लंदन जाकर मारा अपने बहादुर उधम सिंह ने.’-‘मरना ही चाहिए उसे दादा – मरना चाहिए’ दोनों घर लौट गये. भगत के पांव छिल गये थे – दादा की एड़ियों में फिर से दरारें थीं.उस रात नींद गायब थी भगत की आंखों से. करवटें बदलता – बेचैनी अौर घबराहट से पसीना छूटने लगा. उठ कर टीवी खोल दिया. अब तक के बम विस्फोटों के चित्र दिखाये जा रहे थे.

जो देखा भगत ने जालियांवाला बाग से भी भयानक. मुंबई का विस्फोट टीवी पर-हाहाकार. बारूद की आग से झुलसे लोग – चीख पुकार. फिर देखा पूना बेकरी कांड. कोयले बने शरीर-अधजली लाशें – भयंकर चेहरे. भय से कांपते लोग. बनारस, बंगलोर, दिल्ली एक के बाद एक विस्फटों का सिलसिला. बालक भगत को लगा वह घर में नहीं मरघट में खड़ा है. उसने बंद किया टीवी. आधी रात थी. दादा के कमरे में गया – झकझोर कर जगाया – घबराये उठ कर बैठ गये सुखविंदर – ‘क्या हुआ भगत? क्या बात है?’‘डायर मरा कहां है दादा? वह तो अब भी जिंदा है. मैंने देखा – डायर मरा नहीं.’अपनी गोद में भर कर दादा ने भगत को छिपा लिया -‘सावधान भगत! सचमुत डायर जिंदा है’. अब पूरा मुल्क जालियांवाला बाग है.

(समाप्त)

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