राज लक्ष्मी सहाय
सिर्फ एक चिंगारी..
दिये में तेल से भीगी बाती तो है..
न जाने किस तबीयत से पत्थर उछाला उसने कि आकाश में सुराख हो गया. एक सुनहरी-सी मुहर लग गयी आकाश पटल पर. यूपीएसइ का रिजल्ट निकला. गत वर्ष भी निकला था.
मेरी बेटी नैन्सी ने पहले प्रयास में 36वां रैंक लाकर मानो अभी तक के मेरे जीवन की तमाम हार को जीत में बदल दिया था. हर दिशा से रोशनी निकल कर मुङो स्पर्श कर रही थी. मगर आज ही मेरी बेटी ने जो खबर सुनायी, उससे मेरा रोम-रोम आह्लाद के सागर में डूब गया. इस वर्ष एक नि:शक्त लड़की ईरा सिंघल ने आइएएस टॉपर बन कर सुखद हैरत में डाल दिया. इसके हौसले में ईश्वर चार चांद लगाये-यही प्रार्थना है.
मुङो कुछ लोगों का स्मरण हो आया. एक तो विकलांग डॉ सुधा चंद्रा, जो भारत की पहली पीएचडी धारक बनीं. बचपन से ही जिसका आधा शरीर मांस का लोथड़ा भर है, ने अद्भुत जीवन शक्ति से विज्ञान की उच्चतम डिग्री हासिल की. महादेवी वर्मा ने उसे ‘अपराजिता’ नाम दिया था. लिखा था- उसका संपूर्ण शरीर जीवन शक्ति से धड़कता-सा महसूस होता था. फिर काल की गहराई से मुनि अष्टावक्र समक्ष दिखे, जिनकी विद्वता और ज्ञान के समक्ष सब नतमस्तक. सचमुच शारीरिक अपंगता कुछ भी नहीं, अगर मन लौह संकल्प से निर्मित हो. ईरा की उपलब्धि उन तमाम नि:शक्तों के लिए ऐसा प्रकाश स्तंभ है, जिसकी रोशनी में सूरदास की पंक्तियां कौंधने लगती हैं-
‘‘पंगु गिरि लांघे
बहिरो सुने, मूक पुनि बोले’’
ईरा के विषय में जो जानकारी है कम चौंकाने वाली नहीं. 2010 में यूपीएसइ में सफलता पायी. आइआरएस में होने पर भी ट्रेनिंग लेने की अनुमति नहीं मिली. वजह-शारीरिक नि:शक्तता. रीढ़ की हड्डी टेढ़ी-बाहें घुमा नहीं सकती. कद छोटा. हारना सीखा नहीं. केट (सीएटी) में मुकदमा किया.
दो वर्षो के बाद आखिर प्रशिक्षण की अनुमति मिली. हाल ही में पोस्टिंग मिली. करारा जवाब देने की ठानी. आइएएस बनना चुनौती बन गयी. रीढ़ की हड्डी में टेढ़ापन तो क्या हुआ? नजरें लक्ष्य पर और इतिहास रच दिया उसने. कद इतना ऊंचा किया कि देखने वाले भौंचक. न जाने कितनी बार इस बेटी को लेकर माता-पिता का कलेजा नम हुआ होगा. सारे आंसुओं का ऋण बिटिया ने सूद सहित चुका दिया. कमाल है-कमाल है. दुष्यंत की पंक्तियां याद आती हैं-
‘‘चट्टानों पर खड़ा हुआ
तो छाप रह गयी पांव की
सोचो कितना बोझ उठा कर
इन राहों से मैं गुजरा’’
मुङो याद है जब बेटी को लेकर पहली बार मैं मसूरी गयी थी. ‘लाल बहादुर शास्त्री अकादमी ’ परिसर के ठीक मध्य में स्थित शास्त्री जी की प्रतिमा पर नजर पड़ी. मुङो लगा था इससे बेहतर प्रेरणा स्नेत इस मुल्क के भावी प्रशासनिक अधिकारियों के लिए और कोई हो नहीं सकता. एक ही यूनिफॉर्म-नदी पार स्कूल-नाव के पैसे नहीं. हर रोज तैर कर स्कूल जाना. गरीबी जिसके संकल्प को तोड़ न सके ऐसे लाल बहादुर, प्रतिमा के रूप में रह कर भी जीना सिखा सकते हैं.
अक्सर खबरें होती हैं अखबारों में- ठेलेवाले का बेटा आइआइटी इंजीनियर-पान बेचनेवाले का बेटा टॉपर- बर्तन मांज कर मां ने बेटी को डॉक्टर बनाया. अखबार बेच कर बच्चे को सीए बनाया. कोई अनहोनी नहीं ये बातें. यही तो देखा मसूरी में.
अकादमी के स्वागत कक्ष के पास खड़ी थी मैं. एक तो खुद में अभिभूत. दूसरी उत्सुकता की और कौन-कौन बच्चे हैं. जिन्होंने इतनी बड़ी चुनौतियों वाली कठिन परीक्षा पास की है. बच्चों और उनके माता-पिता की भीड़ थी. एक सरसरी निगाह से देखा सारी उत्कंठा और उत्सुकता एक अपरिमित संतोष में परिवर्तित हो गयीं. टैक्सियों से बच्चों के सामान उतर रहे थे. टिन के बक्से-पुराने सूटकेस-पानी की मामूली बोतलें. वैभव का नामोनिशान नहीं. अप्रत्याशित दिव्य सुकून उत्पन्न हो रहा था. पता नहीं क्यों? पोशाकों पर नजर पड़ी. बेहद साधारण-सादगी.
कोई तामझाम नहीं. कुछ भी वैसा नहीं, जो समाज के हाई सोसाइटी की परिभाषा बने. फिर भी सभी सहज और आत्मीयता से भरे. हम सब आपस में मिले भी. परिचय भी पूछा. किसी के पिता का परिचय किसान था, तो कोई गांव के स्कूल का टीचर. एक अपनी मां के संग खड़ा था. पिता नहीं थे. मां साइकिल मरम्मत की दुकान चलाती हैं. बेटे ने भी दुकान पर साइकिल मरम्मत की थी.
भारत दर्शन के दौरान आइएएस साथी वरुण वर्णवाल के (महाराष्ट्र) ठाणो जिले के कस्बे से गुजरे. साइकिल दुकान पर उसकी मां ने चाय भी पिलायी. अद्भुत अनुभव हुआ. दूसरों की साइकिल के टूटे पुजरे को जोड़ते-जोड़ते कब उसने सपनों की मीनार जोड़ दी-शायद उसे भी नहीं पता. बच्चे सबके माता-पिता को पैर छू कर प्रणाम करते. सारा नजारा मध्य और निम्न मध्यम वर्ग की तस्वीर. सुखार्थिन: कुतो विद्या चरितार्थ हो रहा था. 180 सफल बच्चों में से लगभग 150 बच्चों की ऐसी ही छवि. बारिश होने लगी थी. छाता खरीदने के लिए मालरोड की एक दुकान पर मैं गयी. कई और आइएएस बच्चे वहां थे. सस्ता छाता और सस्ती स्वेटर तलाश रहे थे. उस दिन मेस बंद था. मसूरी में महंगे होटल हैं, मगर बच्चों को सड़क के किनारे मामूली होटलों में बैंच पर बैठ कर खाते देखा. सब कुछ आडंबर से रहित. सच है अभाव की जमीन पर ही विद्या का वृक्ष पनपता है. अनोखा अनुभव था. बार-बार शास्त्री जी जेहन में कौंधते और ये बच्चे. वर्ष 2011 में बनारस के एक रिक्शाचालक के बेटे गोविंद जायसवाल ने आइएएस की परीक्षा में 32वां रैंक लाया था. बेटे की सफलता पर क्या उसके पिता ने हवाई जहाज से भी ऊंची उड़ान का अनुभव नहीं किया होगा?
बेटी का सामान लेकर जब मैंने गेट के भीतर कदम रखा, तो एक क्षण के लिए थम गयी. चारों ओर नजर घुमाया. कहां थी मैं? ईश्वर को धन्यवाद देने की शक्ति भी गायब हो गयी थी. ईरा की सफलता सुन कर भी कुछ यही अनुभव हुआ है मुङो. छोटे से कद की नि:शक्त ईरा जब मसूरी जायेगी, तो शास्त्री जी को देख उसे फिर लगेगा- शरीर का कद छोटा है तो क्या हुआ? व्यक्तित्व का आकार तो विशाल है. उन तमाम बच्चों के लिए एक चिंगारी है यह लड़की, जो जीवन में कुछ अनोखा हासिल करना चाहते हैं.
खूब लिखा है दुष्यंत ने-
‘‘ एक चिंगारी कहीं से ढूंढ़ लाओ दोस्तो
इस दिये में तेल से भीगी बाती तो है ’’
सचमुच एक चिंगारी ही तो चाहिए- हसरतों को पूरा करने के लिए. फिर ऐसी लपट उठेगी कि तमाम जग उजियारा हो जाये. इस मुल्क के तरुण शक्ति के लिए एक आशीर्वाद निकलता है-
‘‘जा, तेरे स्वप्न बड़े हों
भावना की गोद से उतर कर
जल्द पृथ्वी पर चलना सीखें
चांद तारों की अप्राप्य सच्चइयों के लिए रूठना, मचलना सीखें
हंसें, मुस्कुराएं, गाएं
हर दिये की रोशनी देख कर ललचाएं
उंगली जलाएं
अपने पांवों पर खड़े हों
जा-तेरे स्वप्न बड़े हो’’.