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शोषण मुक्त समाज ही अबुआ राज
जेबी तुबिद आज से ठीक 160 वर्ष पहले संताल की धरती पर अंगरेजों के अत्याचार और शोषण के खिलाफ एक आंदोलन की नींव डाली गयी थी. 30 जून 1855 को संताल के भोगनाडीह में सिदो और कान्हो ने अबुआ राज के लिए लोगों को एकजुट किया और बताया कि अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में […]
जेबी तुबिद
आज से ठीक 160 वर्ष पहले संताल की धरती पर अंगरेजों के अत्याचार और शोषण के खिलाफ एक आंदोलन की नींव डाली गयी थी. 30 जून 1855 को संताल के भोगनाडीह में सिदो और कान्हो ने अबुआ राज के लिए लोगों को एकजुट किया और बताया कि अत्याचार के खिलाफ इस लड़ाई में खुद ‘‘ठाकुर’’ भी उनके साथ है.
इसी दैवीय शक्ति के सहारे हजारों संताली अपनी माटी की खातिर कुर्बान होने को तैयार हो गए. एक छोटे से गांव से शुरू हुआ हूल ने हजारों लोगों में ऊर्जा का संचार कर दिया. विदेशी साहूकारों और हाकिमों के विरुद्ध छेड़ा गया वह हूल जितना उस समय प्रासंगिक था, उतना आज भी है. राजनीति की मकड़ज़ाल में उलझा एक सामान्य झारखंडी आज अपनी अस्मिता को संजोये रखने के लिए संघर्ष कर रहा है.
जिस अबुआ राज की कल्पना हमलोगों ने पृथक झारखंड के रूप में की थी, वह एक लंबे संघर्ष के बाद अंतत: भगवान बिरसा के जन्म के पावन दिवस पर हमें झारखंड के रूप में मिली. अपने मन में आशाओं और सपनों को हम पिछले 15 वर्षो से संजोये हुए हैं. कहने को तो आज लोग अपने हैं, सरकार भी अपनी है, लेकिन समस्याएं आज भी जस की तस है.
कल तक हमें विदेशी लूटते थे, उनकी पहचान चमड़ी के रंग के आधार पर आसानी से की जा सकती थी. लेकिन आज हमें लूटने वाले हमारे ही बीच के हैं. विकास के नाम पर पैसों का बंदरबांट होता रहा. चंद स्वार्थी व्यक्तियों की सत्ता लोलुपता ने राज्य को हाशिये पर धकेल दिया. खनिज और प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण होने के बावजूद हमारे लोगों को दूसरे राज्यों में मजदूरी करने को जाना पड़ रहा है. राज्य में स्थिति दीया तले अंधेरा जैसी है. हम अपने ही राज्य में निर्भीक होकर यात्र करने में हिचकते हैं. बेहतर शिक्षा और रोजगार के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
सब कुछ सरकार के भरोसे छोड़ बैठे रहना भी एक प्रगतिशील समाज की पहचान नही है. हमें भी अपने बेहतर कल के लिए आगे आना होगा. अपने खेतों में हल चलाना होगा. हमें प्रण लेना होगा, कि हम हर हाल में अपने बच्चों को स्कूल भेजेंगे. समाज के विकास की पहली सीढ़ी अच्छी शिक्षा ही है. शिक्षा विकास का द्वार खोलती है. जबतक हम खुद एक बेहतर समाज के लिए आगे नहीं आते तबतक स्थिति नहीं बदलने वाली.
हमें समाज के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शोषक तत्वों की पहचान कर उसका सामाजिक बहिष्कार कर इनसे लड़ना भी होगा. तभी हम सही मायनों में सिदो-कान्हो के ‘‘अबुआ राज’’ के सपनों की आधारशिला रख पाएंगे. शहीदों की शहादत पर किसी एक दिन विशेष कार्यक्रम आयोजित कर फूल माला पहना देना ही सच्ची श्रद्धांजलि नहीं है, बल्कि उनके आदर्शो, जीवन चरित्र को स्वयं में उतार कर समाज में बदलाव के लिए आगे आना ही उन महान आत्माओं के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है.
हमें समाज की चुनौतियों को पार कर एक आदर्श अबुआ राज स्थापित करना है, जहां सबको सामाजिक न्याय मिल सकें. स्वाभिमान के साथ रोजगार मिल सके.
एक शोषण मुक्त समाज ही सही मायने में ‘‘अबुआ राज’’ है. आइए सिदो कान्हों के जीवन चरित्र को स्वयं में उतार कर सामाजिक बदलाव की दिशा में एक कदम चलकर सिदो-कान्हो, चांद-भैरव को अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करें. लेखक पूर्व आइएएस अधिकारी व वर्तमान में भाजपा के सदस्य हैं.
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