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2019 लोस चुनाव के मुकाबले भाजपा के आदिवासी व यादव वोट हो गये आधे, पढ़ें यह खास रिपोर्ट

हरीश्वर दयाल संत जेवियर्स कॉलेज, रांची के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. संजय कुमार सीएसडीएस के निदेशक और लोकनीति कार्यक्रम के सह-निदेशक हैं. प्रभात खबर चुनाव विश्लेषण में महारत रखनेवाली संस्थाओं सीएसडीएस और लोकनीति के विद्वानों की मदद से झारखंड के जनादेश को समझने की कोशिश कर रहा है. ‘जनादेश विश्लेषण’ शृंखला की तीसरी […]

हरीश्वर दयाल
संत जेवियर्स कॉलेज, रांची के अर्थशास्त्र विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर हैं.
संजय कुमार
सीएसडीएस के निदेशक और लोकनीति कार्यक्रम के सह-निदेशक हैं.
प्रभात खबर चुनाव विश्लेषण में महारत रखनेवाली संस्थाओं सीएसडीएस और लोकनीति के विद्वानों की मदद से झारखंड के जनादेश को समझने की कोशिश कर रहा है. ‘जनादेश विश्लेषण’ शृंखला की तीसरी कड़ी में आज पढ़िए कि किस तरह राज्य के विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों ने मतदान किया.इसमें आपको ऐसे कई तथ्य मिलेंगे जो बताते हैं कि वोट करने का पारंपरिक पैटर्न इस बार टूटा है.
झारखंड में झामुमोनीत गठबंधन की जीत का श्रेय राज्य के मतदाताओं के एक नये सामाजिक और आर्थिक ध्रुवीकरण को दिया जा सकता है. राज्य के बड़े आदिवासी समुदायों ने इस बार ज्यादातर झामुमोनीत गठबंधन के लिए वोट किया. उरांव समुदाय के लगभग 43 प्रतिशत, संथाल के 46 प्रतिशत और मुंडा समुदाय के 30 प्रतिशत हिस्से ने गठबंधन को वोट किया.
गठबंधन के प्रति आदिवासियों के झुकाव का अंदाजा इससे भी लगाया जा सकता है कि ईसाइयों और सरना अनुयायियों (आदिवासियों का बहुसंख्यक हिस्सा) के 40 प्रतिशत से अधिक ने गठबंधन के लिए वोट किया. यह तर्क सहज ही आकर्षित करता है कि छोटानागपुर और संताल परगना काश्तकारी कानूनों में रघुवर दास सरकार द्वारा बदलाव की कोशिश को झामुमो गठबंधन के प्रति आदिवासियों के जबरदस्त समर्थन का कारण मान लिया जाये, लेकिन लोकनीति के मतदान-बाद सर्वेक्षण का आंकड़ा बताता है कि मामला यह नहीं है.
पहली बात, सर्वेक्षण में पाया गया कि बहुत से आदिवासी मतदाता काश्तकारी कानूनों में बदलाव की सरकार की कोशिशों से बेखबर थे (आगामी लेख में इस पर और विस्तार से बात होगी).
और दूसरी बात, जो लोग बदलाव की कोशिशों से बाखबर थे उनमें से केवल संथाल मजबूती से इसके खिलाफ मिले, जबकि अन्य आदिवासी समुदायों जैसे मुंडा और उरांव में इस मुद्दे पर राय बंटी हुई मिली. इसके अलावा, यहां यह जिक्र भी जरूरी है कि झामुमो गठबंधन ने सभी आदिवासी समुदायों और ईसाई मतदाताओं में भाजपा पर बढ़त हासिल की, लेकिन भाजपा ने भी पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले इस बार संतालों, मुंडाओं और ईसाई समुदाय में अपने वोट अच्छे खासे बढ़ाये. हालांकि उरांवों के बीच भाजपा को भारी नुकसान हुआ, जिसमें महागठबंधन ने भारी बढ़त बनायी. झामुमो गठबंधन ने संताल समुदाय में भी बढ़त बनायी, लेकिन उतनी नहीं जितनी भाजपा ने.
हालांकि, अगर हम आदिवासी समुदायों और ईसाइयों के बीच भाजपा के प्रदर्शन की बीते लोकसभा चुनाव से तुलना करें तो भाजपा हरेक आदिवासी समुदाय में भारी नुकसान उठाती दिखती है. लोकसभा चुनाव के मुकाबले उसने उनका आधा समर्थन खो दिया.
राजद का राज्य के यादवों में मजबूत समर्थन आधार है. राजद के साथ गठबंधन के कारण झामुमोनीत गठबंधन ने राज्य के यादवों के बीच अपना वोट शेयर बढ़ाया. लगभग 37 प्रतिशत यादवों ने गठबंधन के लिए वोट किया. अगर हम गठबंधन के सभी सहयोगी दलों को यादवों में मिले 2014 के वोट शेयर को जोड़ लें तो इस बार उन्हें 11 प्रतिशत अंक (परसेंटेज प्वाइंट) का फायदा हुआ है. भले ही राजद केवल एक सीट (यादव बहुल चतरा विस क्षेत्र से) जीत सका, पर उसने गठबंधन को यादवों के बीच सामाजिक आधार बढ़ाने में मदद की.
दूसरी तरफ, भाजपा ने 2014 के चुनाव की तुलना में यादवों में खराब प्रदर्शन किया और 14 प्रतिशत समर्थन गंवा दिया. इसी तरह, आजसू के साथ गठबंधन बना पाने की विफलता का खमियाजा भाजपा को कुर्मी वोटों में भुगतना पड़ा. 2014 के चुनावों, जब भाजपा और आजूस का गठबंधन था, की तुलना में इस बार भाजपा ने कुर्मियों के चार प्रतिशत वोट गंवा दिये.
कुर्मियों के अलावा, पिछले विधानसभा चुनाव के मुकाबले भाजपा को उन अगड़ी जातियों और ओबीसी के बीच भी गहरा झटका लगा जो उसके मुख्य समर्थक थे. ओबीसी और अगड़ी जातियों के समर्थन में हुए क्षरण का नतीजा पार्टी के हिंदू वोटों में गिरावट के रूप में सामने आया. पार्टी ने पिछली बार के मुकाबले पांच प्रतिशत अंक वोट गंवा दिये. इसका यह भी मतलब हुआ कि राम मंदिर, अनुच्छेद 370, सीएए और एनआरसी धार्मिक आधार पर ध्रुवीकरण कराने में विफल रहे. इस तरह, यह कहा जा सकता है कि भाजपा ने उन समुदायों के बीच वोट गंवाये जिनके बीच उसे अपने वोट बरकरार रखने या बढ़ाने की सबसे ज्यादा उम्मीद थी, और उन समुदायों के बीच वोट बढ़ाये जिनके बीच उसे वोट गंवाने की उम्मीद थी.
पूरे राज्य की तस्वीर एकसाथ देखेने पर महिलाओं और पुरुषों के वोट देने के तरीके में ज्यादा फर्क नहीं लगता. पुरुषों के मुकाबले महिलाओं ने केवल एक प्रतिशत अंक ज्यादा झामुमो गठबंधन को वोट किया है. लेकिन जब आंकड़े को क्षेत्र के आधार पर विखंडित किया जाता है तो काफी फर्क नजर आता है. राज्य के उत्तरी हिस्से में महिलाओं ने गठबंधन को पुरुषों के मुकाबले कहीं अधिक वोट किया. यह 29% के मुकाबले 34% है. इसी तरह संताल परगना में भी एक रोचक पैटर्न दिखता है.
वहां महिलाओं ने भाजपा को पुरुषों के मुकाबले छह प्रतिशत अंक कम मतदान किया. यह एक बड़ा अंतर है खासकर जब संताल परगना में झामुमो गठबंधन और भाजपा के वोटों के बीच महज तीन प्रतिशत अंकों का फासला है. यह संताल परगना में गठबंधन की भारी जीत का एक कारण हो सकता है.
आर्थिक तबकों की बात करें तो सर्वेक्षण ने यह पाया कि गरीबों में गठबंधन के प्रति झुकाव अधिक दिखा. इसके अलावा गठबंधन ने उस मध्य वर्ग और धनी वर्ग में भी अच्छा किया, जिसे पारंपरिक रूप से भाजपा का मतदाता माना जाता है.
मध्य वर्ग में भाजपा और गठबंधन दोनों ही 34 प्रतिशत वोटों के साथ बराबरी पर रहे. कॉलेज व उच्च शिक्षित मतदाता पारंपरिक रूप से भाजपा को ज्यादा समर्थन देते रहे हैं, लेकिन इस बार भाजपा उनके बीच अच्छा नहीं कर पायी. उसे उनके बीच गठबंधन के बराबर ही 33 प्रतिशत समर्थन मिला.
अगर हम उम्र के आधार पर पर वोट करने का तरीका देखें, तो भाजपा नौजवान मतदाताओं के बीच बहुत खराब प्रदर्शन करते हुए उनका केवल 31 प्रतिशत समर्थन हासिल कर पायी. यही वह वर्ग है जिसने वोट करने के लिए बेरोजगारी को अपना सबसे बड़ा मुद्दा बताया था. और शायद इससे इस बात का पता मिलता है कि भाजपा उनके बीच अच्छा क्यों नहीं कर पायी.
हम यह भी पाते हैं कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को नौजवानों के जितने वोट मिले थे उसका 49 प्रतिशत इस बार उसने गंवा दिया. सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि दिलचस्प ढंग से आजसू ने युवाओं के बीच बेहतर समर्थन जुटाया. वहीं झामुमो गठबंधन को बुजुर्गों को छोड़कर सभी आयु समूहों से अच्छा समर्थन मिला. झामुमो ने अधेड़ मतदाताओं (45 से 55 आयु समूह) में भी अच्छा किया और उनका 39 प्रतिशत समर्थन जुटाया.
पेशे के आधार पर मतदाताओं की पसंद भी एक दिलचस्प तस्वीर पेश करती है. ऊंचे तबके के पेशेवर और कारोबारी अमूमन भाजपा के लिए वोट करते थे, जो इस बार गठबंधन के पक्ष में एकजुट होते दिखे. कुशल और अर्द्धकुशल कामगारों का भी यही हाल रहा. भाजपा ने केवल सरकारी कर्मियों और किसानों के बीच अच्छा किया. भगवा पार्टी को 41% सरकारी कर्मियों और 40% किसानों ने वोट किया.
इस चुनाव ने यह मिथक भी तोड़ दिया कि भाजपा का शहरी इलाकों में ज्यादा समर्थन है, जबकि झामुमो और राजद का ग्रामीण इलाकों में. चुनाव नतीजों के आंकड़े बताते हैं कि राज्य के शहरी इलाकों में भाजपा और गठबंधन के वोट व शीट शेयर में ज्यादा फर्क नहीं है. इतना ही नहीं, अर्द्ध-शहरी इलाकों में गठबंधन को वोट व शीट शेयर में भाजपा पर बढ़त है.
तथ्य यह है कि वोटों की संख्या के आधार पर अर्द्ध-शहरी इलाके में गठबंधन को भाजपा पर सबसे बड़ी बढ़त मिली. ग्रामीणों इलाकों में राज्य की 81 में से 57 सीटें हैं. ग्रामीण इलाकों में भी झामुमो गठबंधन ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया. ऐसी सीटों पर भाजपा के साथ वोटों का अंतर कम है, पर गठबंधन ने 60 प्रतिशत सीटें जीत लीं.
कुल मिलाकर, झारखंड के विभिन्न सामाजिक-जनसांख्यकीय समूहों के वोट करने के तरीके के अध्ययन से पता चलता है कि इस चुनाव में कई महत्वपूर्ण पारंपरिक वोटिंग पैटर्नों में बदलाव आया है. खासकर उन पैटर्नों में जो पहले झामुमो गठबंधन के पक्ष में नहीं रहते थे. झामुमो गठबंधन द्वारा भाजपा के आधार में सेंध लगाना इस चुनाव की सबसे बड़ी खूबी रही. भाजपा ने भी कुछ हल्कों में बढ़त बनायी, पर वहां जहां उम्मीद कम थी.

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