न पर्याप्त सिटी बसें हैं और न ही उनका रूट तय है, ऑटो से चलना भी बहुत महंगा
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लचर है शहर का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम इसलिए भी ‘मौत की सवारी’ करते हैं बच्चे
न पर्याप्त सिटी बसें हैं और न ही उनका रूट तय है, ऑटो से चलना भी बहुत महंगा स्कूल-कॉलेज के बच्चों को ‘मौत की सवारी’ करने की इजाजत देने के पीछे अभिभावक कई कारण गिनाते हैं. उनका तर्क होता है कि इसमें बस के मुकाबले काफी समय बच जाता है. पैसे की भी बचत होती […]
स्कूल-कॉलेज के बच्चों को ‘मौत की सवारी’ करने की इजाजत देने के पीछे अभिभावक कई कारण गिनाते हैं. उनका तर्क होता है कि इसमें बस के मुकाबले काफी समय बच जाता है. पैसे की भी बचत होती है. लेकिन, इन सबके अलावा राजधानी का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का लचर होना भी एक बड़ा कारण है. शहर में पब्लिक ट्रांसपोर्ट की वर्तमान स्थिति ऐसी है कि अगर कोई स्टूडेंट अपने घर से 10 किलोमीटर की दूरी तय कर स्कूल जाना चाहे, तो वह न तो कभी समय पर स्कूल पहुंच पायेगा और न ही घर. ट्यूशन क्लासेस की बात तो छोड़ ही दीजिए. स्कूलों की भी व्यवस्था कुछ ऐसी होती है कि वे सीनियर छात्रों के लिए बस उपलब्ध ही नहीं कराते. ऐसे में अभिभावक की मजबूरी भी होती है कि वे खुद अपने बच्चे को ‘मौत की सवारी’ गिफ्ट करें.
रांची : राजधानी रांची के अभिभावकों की मानें, तो शहर का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम ऐसा कि उनके भरोसे बच्चों का भविष्य दांव पर नहीं लगा सकते हैं. वे कहते हैं हम चाहें भी, तो पब्लिक ट्रांसपोर्ट या सिटी बस का इस्तेमाल नहीं कर सकते हैं. न तो इनके चलने की टाइमिंग होती है और न ही रुकने की निश्चित जगह. अगर किसी स्टाॅप पर बस खड़ी हुई, तो वह 20 मिनट से कम नहीं रुकती है. हालांकि, इसमें किराया कम है, लेकिन इनके भरोसे स्कूल की टाइमिंग पकड़ी नहीं जा सकती है.
वहीं, आॅटो की बात करें, तो शहर की सड़कों में ऑटो की अच्छी संख्या है, लेकिन इनका परिचालन मुख्य मार्ग तक ही सीमित होता है. साथ ही इनका किराया भी मनमाना होता है. इसके अलावा पब्लिक ट्रांसपोर्ट में सफर करनेवाली छात्राओं के साथ छेड़खानी की आशंका भी होती है. ऐसे में कहना गलत नहीं होगा कि किशोरों की मौत की वजह दुरुस्त पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का दुरुस्त नहीं होना भी है.
इन उदाहरणों के जरिये समझें
‘मौत की सवारी’ का गणित
बच्चों को बाइक या स्कूटी देने के पीछे अभिभावकों का तर्क समय और पैसे की बचत होती है. उदाहरण के लिए 10 किलोमीटर की दूरी के लिए एक स्कूल बस का किराया औसतन 1500 रुपये प्रति महीने होता है. इस 1500 रुपये एक छात्र केवल घर से स्कूल और स्कूल से घर आता-जाता है. अगर इसमें ट्यूशन क्लासेस को जाेड़ दिया जाये तो खर्च की रकम बढ़ जाती है. लेकिन, इसी 10 किलोमीटर आना और जाना एक बच्चा बाइक या स्कूटी से करता है, तो वह पूरे महीने में 600 किलोमीटर चलता है. इस हिसाब से पेट्रोल का खर्च 1000 रुपये से 1100 रुपये के बीच आता है. मतलब एक अभिभावक चार सौ से पांच सौ रुपये बचाता है. वहीं, समय के बचत को देखें तो बाइक से 10 किलोमीटर की दूरी तय करने में अधिकतम 20 मिनट लगेंगे. लेकिन इतनी ही दूरी स्कूल बस से तय कि जाये तो घंटे भर से अधिक का समय लगेगा. यहां भी एक बच्चा हर दिन एक घंटे का समय बचाता है.
जितने पैसे स्कूल बस या ऑटो पर खर्चेंगे उससे कम में बाइक या स्कूटी से पहुंच जायेंगे स्कूल
बस जाम में फंसी तो घर से स्कूल और स्कूल से घर पहुंचने
में हो जायेगी देर ट्यूशन भी छूटेगा
बच्चों को ‘मौत की सवारी’ करने से रोकने के लिए दुरुस्त
करना होगा पब्लिक
ट्रांसपोर्ट सिस्टम
राजधानी रांची की पब्लिक ट्रांसपोर्ट व्यवस्था ऐसी है कि स्कूली बच्चों के लिए इसके सहारे स्कूल से घर के बीच की दूरी तय करना किसी जंग लड़ने से कम नहीं. जाहिर है कि ऐसे में बाइक या स्कूटी ही उनके लिए विकल्प बचता है. इसके बावजूद कम उम्र के बच्चों को बाइक देना उचित नहीं है.
शहर में चलती हैं 3400 ऑटो
शहर की सड़कों पर वैसे तो तीन हजार से अधिक ऑटो दौड़ रहे हैं, लेकिन इनके साथ समस्या यह होती है कि इनका जोर सवारी बैठाने पर होता है न कि समय पर चलने पर. शहर में ऑटो के लगभग 10 रूट निर्धारित किये गये हैं. इनका न्यूनतम किराया पांच रुपये व अधिकतम 20 रुपये है.
ये है हमारे शहर का पब्लिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम
नौ बार के टेंडर के बावजूद बेकार खड़ी हैं 66 सिटी बसें
किसी भी शहर में ट्रांसपोर्ट की लाइफ लाइन होती हैं सिटी बसें. लेकिन, अपने शहर में ऐसा कुछ नहीं है. अपने शहर में भी सिटी बसें संचालित होती हैं, लेकिन बेतरतीब. नगर निगम द्वारा शहर के विभिन्न रूटों में 91 सिटी बसों को चलाना है. लेकिन वर्तमान में मात्र 25 बसें ही चल रही हैं. शेष 66 बसें खड़ी-खड़ी बर्बाद हो रही हैं. जो 25 बसें चल रही हैं, वह भी केवल कचहरी से धुर्वा रूट में. बेकार खड़ी 66 बसों के संचालन के लिए नगर निगम के द्वारा नौ बार टेंडर निकाला जा चुका है. पर किसी ने भी इसे चलाने की जिम्मेदारी नहीं ली. जो बसें चल रही हैं उनके चलने का समय और प्रत्येक स्टॉपेज में रुकने का समय तय नहीं होता है.
साइकिल शेयरिंग योजना भी अधर में
राज्य शहरी विकास प्राधिकरण (सूडा) ने रांची के लिए साइकिल शेयरिंग योजना तैयार की है. इसके तहत शहरवासी किसी भी साइकिल स्टैंड से पांच रुपये में एक घंटे के लिए किराये पर जर्मन मेड साइकिल ले सकते हैं और गंतव्य तक पहुंचने के बाद उसे नजदीक के साइकिल स्टैंड में छोड़ सकते हैं. साइकिल स्टैंड बनाने और पूरी व्यवस्था के संचालन की जिम्मेदारी अहमदाबाद की कंपनी चार्टेड स्पीड प्राइवेट लिमिटेड को सौंपी गयी है. लेकिन, अब तक यह योजना शुरू नहीं हो पायी है. योजना के पहले चरण में कांके स्थित चांदनी चौक से लेकर मेन रोड स्थित बिग बाजार तक कुल 28 साइकिल स्टैंड बनाये जाने थे. लेकिन, अब तक पेवर ब्लॉक बिछाने का काम पूरा नहीं हुआ है.
किस रूट में कितने ऑटो : कांके रोड में 600 हरमू बाइपास से बिरसा चौक में 400 कचहरी से धुर्वा/हटिया में 400 कचहरी से नामकुम सदाबहार चौक में 150 बूटी मोड़ से कांटाटोली में 300 ओरमांझी से जाकिर हुसैन पार्क तक में 600 रातू रोड से काठीटांड में 1000 इटकी से रातू रोड में 300
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