!! गुरुस्वरूप मिश्रा !!
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ऐसे बनेगा झारखंड दूध उत्पादन में आत्मनिर्भर
!! गुरुस्वरूप मिश्रा !! संयुक्त बिहार में दक्षिण बिहार के इन इलाकों में मिल्क कल्चर नहीं था. देहाती गाय ही दूध का जरिया होती थी. लिहाजा उत्तर बिहार से दूध की आपूर्ति की जाती थी. वर्ष 2000 में झारखंड अस्तित्व में आया. दूध उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा. नस्ल सुधार के कार्यक्रम शुरू किये […]
संयुक्त बिहार में दक्षिण बिहार के इन इलाकों में मिल्क कल्चर नहीं था. देहाती गाय ही दूध का जरिया होती थी. लिहाजा उत्तर बिहार से दूध की आपूर्ति की जाती थी. वर्ष 2000 में झारखंड अस्तित्व में आया. दूध उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा. नस्ल सुधार के कार्यक्रम शुरू किये गये. पशु प्रजनन नीति बनायी गयी. झारखंड मिल्क फेडरेशन के जरिए दुग्ध उत्पादन में बढ़ोतरी कर श्वेत क्रांति की दिशा में कदम बढ़ाने की कोशिश की गयी. इसका असर हुआ. दुग्ध उत्पादन में हर वर्ष वृद्धि हो रही है, लेकिन स्याह सच यह भी है कि आज भी बिहार समेत अन्य पड़ोसी राज्यों से दूध आयात करना पड़ रहा है. दूध उत्पादन के क्षेत्र में झारखंड आत्मनिर्भर बन सकता है. इसके लिए पशु प्रजनन नीति का पालन करना होगा और देसी नस्ल को बढ़ावा देना होगा.
नहीं था मिल्क कल्चर
संयुक्त बिहार में दक्षिण बिहार के इलाके में मिल्क कल्चर नहीं था. देहाती गाय से ही दूध का उत्पादन किया जाता था. लिहाजा उत्तर बिहार से दूध की आपूर्ति की जाती थी. वर्ष 2000 में झारखंड के अस्तित्व में आने के बाद दूध उत्पादन पर जोर दिया जाने लगा. मिल्क कल्चर धीरे-धीरे विकसित होने लगा. वर्ष 2001-02 के दौरान प्रति व्यक्ति दूध की उपलब्धता मात्र 98 ग्राम थी. डेढ़ दशक बाद आज दूध की उपलब्धता प्रति व्यक्ति 171 ग्राम हो गयी है.
देहाती गायें कोई नस्ल नहीं
झारखंड की देहाती गायें कोई नस्ल नहीं हैं. ये सामान्य तौर पर एक से डेढ़ लीटर दूध देती हैं. ऐसे में नस्ल सुधार कर दूध उत्पादन में बढ़ोतरी की कोशिश की गयी. वर्ष 2005 में बायफ के जरिए कृत्रिम गर्भाधान की पहल की गयी. विदेशी-देसी नस्ल के सीमेन का उपयोग किया जाने लगा. इसका असर होने लगा. धीरे-धीरे दूध का उत्पादन बढ़ने लगा. जो गायें पहले रोजाना 1.54 लीटर दूध देती थीं, वो अब रोजाना 2.60 लीटर दूध देने लगीं.
पशु प्रजनन नीति का हो पालन
वर्ष 2011 में पशु प्रजनन नीति बनायी गयी. इसमें तय किया गया कि शहरी एवं अर्द्ध शहरी क्षेत्रों में विदेशी नस्ल (फ्रीजियन व जर्सी) के सीमेन का उपयोग हो और ग्रामीण क्षेत्रों में देसी नस्ल (साहिवाल, लाल सिंधी, गिर, थारपारकर इत्यादि) के सीमेन का उपयोग किया जाये. इस नीति का पालन किया जाये, तो दूध उत्पादन में उत्साहजनक वृद्धि होगी.
हरा चारा की उपलब्धता बढ़ायी जाये
झारखंड में हरा चारा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं है. इसका सीधा असर दूध के उत्पादन पर पड़ रहा है. दूध उत्पादन में बढ़ोतरी के लिए पशुओं को हरा चारा देना काफी जरूरी है. राज्य में हरा चारा का महज 40 फीसदी ही उत्पादन हो पा रहा है. इसे बढ़ाने की जरूरत है, ताकि गरीब पशुपालकों को सब्सिडी देकर सस्ती दर पर हरा चारा उपलब्ध कराया जा सके.
डेढ़ दशक बाद भी नहीं है कैटल फीड प्लांट
पर्याप्त दुग्ध उत्पादन के लिए कैटल फीड प्लांट का होना बेहद जरूरी है. राज्य निर्माण के डेढ़ दशक बाद भी कैटल फीड प्लांट नहीं लगाया गया है. इसके जरिए खली, मकई, भूसी एवं चोकर का मिश्रण प्राप्त होता है, जो पशुओं का दूध बढ़ाने के लिए काफी जरूरी है. जब तक पशुओं को उचित आहार नहीं मिलेगा, तब तक दूध का बेहतर उत्पादन नहीं हो सकता.
देसी नस्ल को मिले बढ़ावा
राज्य में देसी नस्ल को बढ़ावा देना बेहद जरूरी है. इसके जरिए न सिर्फ दूध का उत्पादन बढ़ाया जा सकता है बल्कि स्वास्थ्य की दृष्टि से भी काफी फायदेमंद है. जागरूकता की कमी के कारण इस नस्ल की गायों को कमतर आंका जाता है. आप इस नस्ल की गायों की क्षमता व उपयोगिता जान चौंक जायेंगे.
गायों की 37 देसी नस्ल
गायों की यूं तो कई देसी नस्ल हैं, लेकिन 37 देसी नस्ल की पहचान की गयी है. झारखंड के लिए देसी नस्ल सबसे उपयुक्त है. जानकारी का अभाव के कारण विदेशी नस्ल की गायों के प्रति लोगों के बीच आकर्षण है. देसी नस्ल की गायें 50 लीटर रोजाना तक दूध देती हैं. इनका दूध काफी गाढ़ा भी होता है, जिसमें फैट की मात्रा अधिक होती है.
देसी नस्ल की गायें 10-11 बार देती हैं बच्चा
देसी नस्ल की गायों की कई खासियत हैं. इनमें से एक खासियत है 10-11 बार बच्चा देना, जबकि विदेशी नस्ल की गायें 3-4 बार ही बच्चा दे पाती हैं. इस लिहाज से भी देसी नस्ल की गायें खासकर साहिवाल, लाल सिंधी, हरियाणवी ब्रिड बेहतर हैं.
विदेशों में भी अधिक डिमांड
दूध की दो श्रेणी होती है. देसी नस्ल की गाय के दूध को (ए 2) और विदेशी नस्ल की गाय के दूध को (ए 1) कहते हैं. विशेषज्ञ कहते हैं कि जानकर आश्चर्य होगा कि देसी नस्ल की गायों के दूध यानी ए 2 की डिमांड विदेशों में अधिक है. ए 1 श्रेणी के दूध से डायबिटिज और ऑटिज्म की बढ़ती संभावना को लेकर विदेशों में ए 2 श्रेणी के दूध की मांग बढ़ गयी है.
प्राकृतिक गर्भाधान पर जोर
कृत्रिम गर्भाधान की बजाय प्राकृतिक गर्भाधान पर जोर देने की जरूरत है. ये न सिर्फ दूध की गुणवत्ता व उत्पादन को लेकर अच्छा है, बल्कि स्वास्थ्य के लिहाज से भी बेहतर है. इसलिए प्राकृतिक गर्भाधान पर जोर दिया जाना चाहिए.
विकसित किये जाएं गौ अभ्यारण्य
झारखंड में गौ अभ्यारण्य विकसित किये जाने की आवश्यकता है. यहां देसी गाय का ब्रिडिंग सेंटर बनाया जाये. इसके लिए सरकार गौशालाओं का सहयोग ले सकती है. गौशालाओं को आर्थिक मदद देते हुए कार्य प्रगति की उचित मॉनिटरिंग की जाये, तो दूध उत्पादन में वृद्धि हो सकती है.
गौ उत्पादों पर दिया जाए जोर
गाय को सिर्फ दूध उत्पादन की दृष्टि से ही देखा जाता है. नजरिया बदलते हुए अगर गौ उत्पादों पर भी जोर दिया जाये, तो न सिर्फ दूध का उत्पादन बढ़ेगा, बल्कि गौ उत्पादों से पशुपालकों की आमदनी भी बढ़ेगी. गाय का दूध 40 रुपये लीटर बिकता है, जबकि गौमूत्र का अर्क 100 रुपये लीटर बिकता है. आप ताज्जुब करेंगे कि गौमूत्र का अर्क 100 से भी अधिक बीमारियों में कारगर है. सबसे खास बात ये कि गौमूत्र में डीएनए के क्षतिग्रस्त होने पर उसकी मरम्मत करने की क्षमता है.
पशुपालकों को मिले प्रशिक्षण
पशुपालकों को नियमित प्रशिक्षण दिया जाये. इसमें देसी और विदेशी नस्ल की गायों के फायदे व नुकसान से उन्हें अवगत कराया जाये. उन्हें जानकारी दी जाये कि झारखंड के लिए देसी नस्ल की गायें कितनी कारगर हैं. दूध उत्पादन में आत्मनिर्भरता और पशुपालकों की आय दोगुनी करने के लिए देसी नस्ल को बढ़ावा देना होगा.
दूध उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिए देसी नस्ल को दें बढ़ावा-सिद्धार्थ जायसवाल, सीईओ, बीपीडी, बीएयू
बिरसा कृषि विश्वविद्यालय के बिजनेस प्लानिंग एंड डेवलपमेंट (बीपीडी) के सीईओ सिद्धार्थ जायसवाल कहते हैं कि दूध उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिए झारखंड में देसी नस्ल को बढ़ावा देना होगा. इससे दूध का उत्पादन बढ़ेगा. स्वास्थ्य भी बेहतर रहेगा और पशुपालकों की आमदनी भी दोगुनी होगी. प्राकृतिक गर्भाधान पर जोर दिया जाए. गौ अभ्यारण्य विकसित किये जायें और गौ उत्पादों पर जोर दिया जाए. इसके लिए पशुपालकों को नियमित प्रशिक्षण देने की जरूरत है.
हरा चारा उपलब्ध हो, लगे कैटल फीड प्लांट-प्रो. डॉ आलोक कुमार पांडेय, रांची वेटनरी कॉलेज, बीएयू
गव्य विकास निदेशालय के पूर्व निदेशक व रांची वेटनरी कॉलेज के प्रोफेसर डॉ आलोक कुमार पांडेय कहते हैं कि दूध उत्पादन के क्षेत्र में झारखंड आत्मनिर्भर बन सकता है. इसके लिए कुछ बातों पर ध्यान देना जरूरी है. पशु प्रजनन नीति का पालन हो. ग्रामीण क्षेत्रों में देसी नस्ल के सीमेन का ही उपयोग किया जाये. हरा चारा के अधिक उत्पादन पर जोर दिया जाये. कैटल फीड प्लांट जल्द लगाया जाये, ताकि पशुओं को उचित आहार मिल सके.
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