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फादर कामिल बुल्के का अवशेष 13 मार्च को आयेगा रांची, जानें इन्हें
II संजीव सिंह II रांची : हिंदी, तुलसी दास, वाल्मीकि के भक्त, रामकथा के लेखक तथा संत जेवियर्स कॉलेज में हिंदी व संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे फादर कामिल बुल्के का अवशेष रांची लाया जायेगा. नयी दिल्ली स्थित निकोलसन सेमेट्री से इनके बचे हुए अवशेष को हवाई जहाज द्वारा 13 मार्च को रांची लाया जा […]
II संजीव सिंह II
रांची : हिंदी, तुलसी दास, वाल्मीकि के भक्त, रामकथा के लेखक तथा संत जेवियर्स कॉलेज में हिंदी व संस्कृत विभाग के अध्यक्ष रहे फादर कामिल बुल्के का अवशेष रांची लाया जायेगा. नयी दिल्ली स्थित निकोलसन सेमेट्री से इनके बचे हुए अवशेष को हवाई जहाज द्वारा 13 मार्च को रांची लाया जा रहा है. इसके बाद ससम्मान इन्हें संत जेवियर्स कॉलेज परिसर स्थित मुख्य द्वार के बगल में दफनाया जायेगा.
जानकारी के मुताबिक नयी दिल्ली कश्मीरी गेट स्थित निकोलसन सेमिट्री में इनके अवशेष की हालत काफी दयनीय हो गयी है. बगल से नाले का गंदा पानी बहता है. इसे देखते हुए ही जेसुइट के सदस्यों द्वारा बचे हुए अवशेष को सारी प्रक्रियाएं पूरी करते हुए रांची लाया जा रहा है.
रांची हवाई अड्डा पर 13 मार्च को भारी संख्या में लोग पहुंच कर उनके अवशेष को जुलूस की शक्ल में लेकर संत जेवियर्स कॉलेज पहुंचेंगे. 14 मार्च को एक कार्यक्रम के तहत इन्हें पुन: दफनाया जायेगा. इस अवसर पर कार्डिनल तेलेस्फोर पी टोप्पो, संत जेवियर्स कॉलेज के प्राचार्य फादर निकोलस टेटे सहित कई गणमान्य लोग व विद्यार्थी उपस्थित रहेंगे.
कौन हैं फादर कामिल बुल्के : फादर कामिल बुल्के का जन्म बेल्जियम के वेस्ट फ्लैंडर्स में नॉकके-हेइस्ट के एक गांव रामस्केपेल में एक सितंबर 1909 में हुआ था. इनके पिता का नाम अडोल्फ अौर माता का नाम मारिया बुल्के था. अभाव अौर संघर्ष भरे अपने बचपन के दिन गुजारने के बाद बुल्के ने कई स्थानों पर पढ़ाई जारी रखी.
बुल्के ने पहले ल्यूवेन विवि से सिविल इंजीनियरिंग में बीएससी की डिग्री हासिल की. 1930 में ये एक जेसुइट बन गये. 1932 में नीदरलैंड के बलकनवर्ग में अपना दार्शनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद 1934 में भारत के लिए निकले. नवंबर 1936 में मुंबई होते हुए दार्जिलिंग पहुंचे. इसके बाद झारखंड में गुमला में पांच साल तक गणित पढ़ाया. वहीं पर हिंदी, ब्रजभाषा व अवधी सीखी.
1938 में हजारीबाग सीतागढ़ में पंडित बद्रीदत्त शास्त्री से इन्होंने हिंदी अौर संस्कृत सीखी. 1940 में हिंदी साहित्य सम्मेलन प्रयाग में विशारद की परीक्षा पास की. इस दौरान इन्हें 1941 में पुजारी की उपाधि दी गयी.
शास्त्रीय भाषा में रुचि के कारण इन्होंने कलकत्ता विवि से संस्कृत में मास्टर डिग्री अौर इलाहाबाद विवि में हिंदी साहित्य में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की. इस शोध का शीर्षक रामकथा की उत्पत्ति अौर विकास था. 1950 में फादर बुल्के संत जेवियर्स कॉलेज रांची में हिंदी व संस्कृत विभागाध्यक्ष बने.
1950 में ही इन्हें भारत की नागरिकता मिली. इसी वर्ष वह बिहार राष्ट्रभाषा परिषद की कार्यकारिणी के सदस्य नियुक्त हुए. केंद्रीय हिंदी समिति के सदस्य भी रहे. 1973 में इन्हें बेल्जियम की रॉयल अकादमी का सदस्य बनाया गया.
इनकी हिंदी-अंग्रेजी व अंग्रेजी-हिंदी शब्दकोश काफी प्रसिद्ध हैं. इनके मुख्य प्रकाशन मुक्तिदाता, नया विधान व नीलपक्षी हैं. इन्हें भारत सरकार द्वारा 1974 में पद्मभूषण से सम्मानित किया गया. 17 अगस्त 1982 में गैंगरीन के कारण एम्स, नयी दिल्ली में इलाज के दौरान इनका निधन हो गया.
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