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छोटे राज्य की बड़ी उम्मीदों के लिए छोटे सत्र के मायने

कुणाल षाड़ंगी जब राज्य की जनता ने पिछले विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी, तो कई उम्मीदें थीं. जनता को उम्मीद थी कि पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं के अलावा एक सकारात्मक माहौल बनेगा. एक उत्पादकता युक्त राजनीतिक स्थिरता की और एक संस्थागत विकास का मॉडल तैयार होगा. लोकतंत्र की […]

कुणाल षाड़ंगी
जब राज्य की जनता ने पिछले विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत की सरकार बनायी, तो कई उम्मीदें थीं. जनता को उम्मीद थी कि पानी, बिजली, सड़क, शिक्षा और स्वास्थ्य की समस्याओं के अलावा एक सकारात्मक माहौल बनेगा. एक उत्पादकता युक्त राजनीतिक स्थिरता की और एक संस्थागत विकास का मॉडल तैयार होगा.
लोकतंत्र की संभावना राज्य की विधायी परिस्थितियों की परिपक्वता या अपरिपक्वता पर ही निर्भर होती है.
पहली बार जनता द्वारा चुनकर आने के बाद की वह उत्सुकता और उतावलापन आज भी उतनी ही ताजी है, जब पहली पार विधानसभा के हॉल के अंदर मैंने प्रवेश किया था.
कई लाख लोगों की जिम्मेदारियां, विश्वास और भावनाओं के प्रतिनिधित्व करने का एहसास! विधानसभा के पटल पर उठाये जानेवाले प्रश्नों के प्रभाव की वास्तविकता से रूबरू होने का एहसास! व्यवस्था की आधारभूत और नीतिगत संरचना में बदलाव ले आने की ताकत का एहसास! राजनीतिक जीवन के पहले बजट सत्र में एनएच 33 की गालूडीह से बहरागोड़ा होकर बंगाल और ओड़िसा सीमा तक सालों से निहायत जर्जर हिस्से की मरम्मत की मांग को लेकर सदन परिसर में धरना देने और सदन में चर्चा के बाद माननीय मुख्यमंत्री की पहल के कारण विधायी ताकत पर विश्वास सही साबित होता दिखने लगा.
कॉलेज के दिनों की तरह तैयारियां होती थी. चाहे वह शून्य काल में सुबह चार बजे उठकर पहले 25 प्रश्नों की सूची में जगह बनाने की रेस हो या प्रतिदिन विधानसभा से भेजे गये विधायी पत्र के उस पैकेट को खोलने के पहले तारांकित और अल्पसूचित प्रश्नों के चयनित होने या न होने को लेकर उत्सुकता या कार्यस्थगन प्रस्ताव के विषय पर देर रात तक गूगल और किताबों को छानना. कहीं न कहीं अगर कोई चीज एक जबरदस्त प्रेरणा देती थी, तो वह थी प्रश्न के प्रभाव की सुनिश्चितता पर भरोसा कि सूरत और सीरत में बदलाव होगा. सत्र के दौरान आम तौर पर एक औपचारिक पैटर्न के लिए प्रसिद्ध नौकरशाही भी सक्रिय दिखती थी. सदन की द्वितीय पाली में चर्चा के दौरान दोनों तरफ से शब्दों के बाणों का आनंद अलग होता था.
तीन साल में हम अब अपने तीसरे शीतकालीन सत्र की दहलीज पर हैं. अधिसूचना जारी हुई है.तीन दिनों का सत्र होगा, क्योंकि पहला दिन बस औपचारिकताएं होंगी. सोमवार को सम्मिलित नहीं होने के कारण माननीय मुख्यमंत्री का प्रश्नकाल भी नहीं होगा. जब इतने महत्वपूर्ण प्रश्न की श्रेणी के लिए यह गंभीरता है, तो यह साफ है कि सरकार इश्यू का सामना नहीं करना चाहती है. क्या सदन सिर्फ कोरम पूरा करने के लिए है. सरकार भले ही पल्ला झाड़ ले कि विपक्ष विकास नहीं चाहता है, इसलिए सदन को बाधित करता है.
सीएनटी-एसपीटी में संसोधन विधेयक के दौरान घटी घटना पर विपक्ष के कुछ साथियों के आचरण पर अगर सवाल उठते हैं, तो इसका भी आकलन होना चाहिए कि सिर्फ सांख्यिकी बहुमत होने के कारण अपने चुनावी घोषणा पत्र के बाहर के और राज्य की धरातल की सामाजिक वास्तविकताओं को बिना समझे और पारंपरिक भावनाओं के विपरीत किसी विषय को सदन पर थोपना कहां तक तर्कसंगत है?
माननीय मुख्यमंत्री जी के ‘योजना बनाओ’ अभियान के दौरान अपने विधानसभा क्षेत्र में जब मैंने एक सुझाव देना चाहा, तो उन्होंने कहा कि विधानसभा में बोलना, यहां नहीं. अगर विपक्ष ने सदन में सरकार के गलत निर्णय का विरोध किया है, तो समस्या पर पहल होने पर आभार भी जताया है.
सरकार की विफलताओं पर लोग आइना दिखायेंगे और जनता शायद जान जायेगी इसलिए सरकार ने अपने संवैधानिक अधिकारों का गलत इस्तेमाल करके लोकतंत्र की सबसे बड़े पंचायत की आवाज को दबाने का प्रयास किया है.
(लेखक झामुमो के विधायक हैं)

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