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सर्व शिक्षा अभियान के आंकड़ों पर उठते सवाल

-सुमंत- हाल में ही मानव संसाधन विभाग के प्रधान सचिव के विद्यासागर ने सरकारी स्कूलों के कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को मुफ्त किताबें देने के लिए 2013-14 में टेंडर में हुई गड़बड़ी की सीबीआइ जांच कराने की अनुशंसा की है. करीब 55 लाख बच्चों को किताब उपलब्ध कराने के लिए 99.2 करोड़ […]

-सुमंत-

हाल में ही मानव संसाधन विभाग के प्रधान सचिव के विद्यासागर ने सरकारी स्कूलों के कक्षा एक से आठ तक के बच्चों को मुफ्त किताबें देने के लिए 2013-14 में टेंडर में हुई गड़बड़ी की सीबीआइ जांच कराने की अनुशंसा की है. करीब 55 लाख बच्चों को किताब उपलब्ध कराने के लिए 99.2 करोड़ रुपये का टेंडर दिया गया था. आपत्ति इस बात पर है कि एक साल में टेंडर की राशि 45 करोड़ से बढ़कर 99.2 करोड़ कैसे हो गयी.

जानकार बताते हैं कि यह अनियमितता सालों से चले आ रहे एक बड़े घोटाले का छोटा सा हिस्सा मात्र है. सरकारी आंकड़े बताते हैं कि झारखंड में करीब 62 लाख (6-14 आयु वर्ग) बच्चे विभिन्न सरकारी विद्यालयों में दाखिल है. इनमें से करीब 35 लाख को दोपहर का भोजन दिया जाता है. इतने बच्चों के लिए खाद्यान्न का उठाव होता है. जानकार बताते हैं कि ये 35 लाख का आंकड़ा भी बढ़ा-चढ़ा कर बताया जाता है. 30 लाख से ज्यादा बच्चे नियमित स्कूल नहीं आते हैं.

अब सरकार 35 लाख बच्चों को भोजन देती है,ं पर 55 लाख बच्चों को किताब देने के लिए प्रकाशकों को आदेश देती है. अब कितनी पुस्तकों की छपाई होती है और कितनी बच्चों तक पहुंचती है, यह तो भगवान ही जाने. करीब इतने ही बच्चों को पोशाक भी दी जाती है. पहले पोशाक मुहैया कराने के लिए भी टेंडर निकाले जाते थे. पर पिछले साल से ये राशि सीधे विद्यालयों में भेज दी जाती है. इन सारे आंकड़ों में जो विसंगतियां हैं, वह यह दर्शाती हैं कि कहीं न कहीं सालों से गड़बड़ी चली आ रही है. उत्तर जानने के लिए ज्यादा बुद्धि की आवश्यकता नहीं है. कोई न कोई आंकड़ा तो फर्जी है. अगर यह तर्क दिया जाये कि 62 लाख बच्चों में से सिर्फ 35 लाख ही नियमित स्कूल आते हैं, तो बाकी नामांक न पर स्वत: सवाल उठने चाहिए.

62 लाख नामांकन के आंकड़ों में से सिर्फ दोपहर के भोजन, पोशाक व पुस्तकों पर तो खर्च पर असर नहीं पड़ता है. सर्व शिक्षा अभियान व शिक्षा के अधिकार के तहत परिभाषित सारे कार्यक्रमों व आधारभूत संरचना का निर्माण इन्हीं 62 लाख बच्चों के नामांकन को ध्यान में रखकर किया जाता है.

उदाहरण के लिए पारा शिक्षकों की नियुक्ति भी इन्हीं संख्या को सामने रखकर की जाती है. 25-30 बच्चों पर एक पारा शिक्षक की नियुक्ति की जानी है. अभी कहा जाता है कि 45,000 पारा शिक्षकों के पद रिक्त हैं. अगर नामांकित बच्चों का सही आंकड़ा पता चले, तो शायद जितने पारा शिक्षक नियुक्त हैं उन्हीं से काम चल जाये. इसके अलावा बढ़ा-चढ़ा कर दिये गये आंकड़ों के आधार पर ही क्लास रूम व छात्रवृत्ति की व्यवस्था करनी है.

आंकड़ों का फर्जीवाड़ा सिर्फ झारखंड में ही नहीं चल रहा है, अन्य राज्यों में भी स्थिति कमोबेश यही है. बिहार सहित कई राज्यों ने इस गड़बड़ी को रोकने के लिए कदम उठाये है. झारखंड में यह निर्बाध जारी है और अभियान से जुड़े अधिकतर लोगों के लिए यह कामधेनु गाय की तरह हो गयी है.

एक पूर्व शिक्षा सचिव बताते हैं कि 10 से 20 प्रतिशत बच्चे एक से ज्यादा विद्यालयों में नामांकित हैं. बहुत सारे संपन्न माता-पिता भी प्राइवेट विद्यालयों के अलावा सरकारी स्कूलों में दाखिला करवाते हैं ताकि ये बच्चे नवोदय विद्यालयों में दाखिला लेने के योग्य हो सके. उनका मानना है कि सारे नामांकित बच्चों को दी जाने वाली सुविधाएं आधार कार्ड से जोड़ने पर फर्जीवाड़े पर कुछ हद तक काबू पाया जा सकता है.

सनद रहे कि राज्य सरकार एक बच्चे पर करीब 5000 रुपये से ज्यादा खर्च करती है. अजीम प्रेमजी फाउंडेशन द्वारा शिक्षा का विश्लेषण (2-3 साल पहले) कराया गया था. इसमें बताया गया था कि झारखंड सरकार 4,767 रुपये प्रति छात्र खर्च करती है.

अब सवाल यह है कि ये विसंगतियां सालों से चली आ रही है. इस गोरखधंधा को कौन साबित करेगा. करीब 5 साल पहले भारत के लोक लेखा नियंत्रक (सीएजी) ने दोपहर के भोजन में हो रही गड़बड़ी पर राज्य के पांच जिलो में जांच करवायी थी. यह पाया गया कि करीब 1.91 लाख बच्चों का नामांकन फरजी था. करीब 627 अस्तित्वविहीन विद्यालयों पर हुए खर्चो को भी सीएजी ने पकड़ा था. पर ऐसा नहीं लगता कि राज्य सरकार ने इस पर कोई कार्रवाई की. अत: छात्रों के भविष्य गढ़ने के नाम पर जो कुछ चल रहा है उसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए, ताकि सरकार आंकड़ों के आधार पर अपनी पीठ न ठोंके. सही सुविधाएं सही छात्रों तक पहुंचे.

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