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मां प्यून, बेटे डॉक्टर, इंजीनियर और डीएम
सुरेंद्र कुमार/शंकर पोद्दार बाप की जगह मां ले सकती है, मां की जगह बाप ले नहीं सकता. लोरी दे नहीं सकता… दशकों पहले लिखे गये इस गीत के बोल आज भी उतने ही मान्य हैं, जितने तब थे. यह लाइनें तब तक प्रासंगिक रहेंगी, जब तक मां हैं.रजरप्पा प्रोजेक्ट के टाउनशिप में काम करनेवाली सुमित्रा […]
सुरेंद्र कुमार/शंकर पोद्दार
बाप की जगह मां ले सकती है, मां की जगह बाप ले नहीं सकता. लोरी दे नहीं सकता… दशकों पहले लिखे गये इस गीत के बोल आज भी उतने ही मान्य हैं, जितने तब थे. यह लाइनें तब तक प्रासंगिक रहेंगी, जब तक मां हैं.रजरप्पा प्रोजेक्ट के टाउनशिप में काम करनेवाली सुमित्रा देवी इसका उदाहरण हैं. पति की मौत के बाद उन्होंने अपने तीन बेटों को जिस मुकाम पर पहुंचाया, वह हर मां-बाप का सपना होता है.
तमाम परेशानियों के बावजूद उन्होंने एक बेटा को डॉक्टर, दूसरे को इंजीनियर और तीसरे को आइएएस अधिकारी बनाया.
उनके पति नवादा निवासी रामलखन प्रसाद यादव सीसीएल रजरप्पा प्रोजेक्ट में फोरमेन थे. वर्ष 1991 में उनकी मृत्यु हो गयी. यह इस परिवार पर पहाड़ टूटने से कम न था. तब बड़ा बेटा वीरेंद्र कुमार विवेक महज आठ साल का था. दूसरा धीरेंद्र छह और सबसे छोटा महेंद्र चार वर्ष का.
राहत की बात यह रही कि कुछ ही दिनों बाद सुमित्रा को रजरप्पा प्रोजेक्ट के टाउनशिप एरिया में आॅफिस में साफ-सफाई का काम मिल गया. सुमित्रा ने सिर्फ परिवार चलाने के बजाय अपने बच्चों को लायक बनाने की कोशिशें शुरू कर दी. वीरेंद्र को नवोदय और विवेक को राज बल्लभ उच्च विद्यालय सांडी चितरपुर में दाखिल करवाया. सबसे छोटे बेटे को सैनिक स्कूल में पढ़ाया.
समय बीतता रहा और तीनों बेटे बड़े हो गये. बड़े बेटे को ओएनजीसी मुंबई में नौकरी मिल गयी, लेकिन उन्होंने नौकरी छोड़ दी. प्रतियोगिता की तैयारी कर टाटा जंक्शन में इंजीनियर के पद पर बहाल हुआ.
धीरेंद्र कुमार भी मेडिकल की पढ़ाई पूरी कर पटना में सरकारी चिकित्सक बन गये. छोटे बेटे महेंद्र कुमार एनआइटी से पढ़ाई पूरी कर रेलवे में इंजीनियर बन गये, लेकिन उनका ख्वाब आइएएस बनने का था. सो, नौकरी छोड़ कर यूपीएससी की तैयारी करने लगे. पहली ही कोशिश में महेंद्र ने देश की सर्वोच्च प्रशासनिक सेवा की परीक्षा पास कर ली. फिलहाल वह बिहार के सीवान में डीएम के पद पर कार्यरत हैं.
चित्तरंजन, गुनू का मिला साथ
सुमित्रा देवी को नौकरी मिलने के बाद काफी संघर्ष करना पड़ा. उन्होंने प्रतिदिन ड्यूटी की. शुरू-शुरू में कई दिक्कतें आयीं, लेकिन रजरप्पा के टाउनशिप एरिया में कार्यरत चित्तरंजन दास चौधरी, गुनू महतो ने हमेशा इन्हें सपोर्ट किया.
बेटों के कहने पर भी नहीं छोड़ी नौकरी
सुमित्रा बताती हैं कि बेटों को नौकरी मिलने के बाद उन्होंने नौकरी छोड़ने की सलाह दी. लेकिन उन्होंने बेटों की सलाह को मानने से साफ इनकार कर दिया. आज बेटे उच्च पदों पर हैं, फिर भी सुमित्रा को कोई घमंड नहीं है. कहती हैं कि तीनों बेटे संस्कारी हैं. वे माइनस टाइप क्वार्टर में रहती हैं. छह माह बाद यहां से सेवानिवृत्त होने के बाद तीनों बेटों के साथ रहना चाहती हैं.
भगवान में रखती है काफी आस्था
सुमित्रा की भगवान में आस्था है. इनका मानना है कि सभी उपलब्धियों के पीछे भगवान का आशीर्वाद है. वे बताती हैं कि जब वे बाबाधाम गयीं थीं, तभी बेटे की नौकरी लगने की खबर मिली.
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