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वामपंथी अतिवाद की समस्या : गरीब इलाकों में बढ़ती नक्सली हिंसा पर ठोस पहल कब!

नक्सलवाद की गहराती जड़ें नक्सली हिंसा लंबे समय से आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानी जाती रही है. बीते सालों के आंकड़ों पर गौर करें, तो वामपंथी उग्रवादियों ने कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकियों से कहीं अधिक हत्याओं को अंजाम दिया है. वर्ष 2008 से इस वर्ष 16 अप्रैल तक 2,202 नागरिक और […]

नक्सलवाद की गहराती जड़ें
नक्सली हिंसा लंबे समय से आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा मानी जाती रही है. बीते सालों के आंकड़ों पर गौर करें, तो वामपंथी उग्रवादियों ने कश्मीर घाटी में सक्रिय आतंकियों से कहीं अधिक हत्याओं को अंजाम दिया है. वर्ष 2008 से इस वर्ष 16 अप्रैल तक 2,202 नागरिक और 1,389 सुरक्षाकर्मी माओवादी हिंसा में मारे गये हैं. छत्तीसगढ़, झारखंड, बंगाल, ओड़िशा, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र समेत देश के अन्य कई राज्यों में नक्सलवादियों की सक्रियता है.
लेकिन, इस समस्या को महज सुरक्षा से जुड़ी चुनौती समझना ठीक नहीं होगा.वामपंथी अतिवाद से प्रभावित इलाके देश के सबसे गरीब इलाके हैं और वहां के संसाधनों का मनमाना दोहन असंतोष का बड़ा आधार है. उन क्षेत्रों के विकास के जरिये नागरिकों का भरोसा जीतने और उग्रवादी संगठनों से बातचीत के रास्ते समाधान खोजने के समुचित प्रयास नहीं किये गये हैं. सुरक्षा-संबंधी रणनीतिक चूकों के कारण भी मुश्किलें बढ़ी हैं. नक्सली हिंसा के विभिन्न पहलुओं की पड़ताल पर आधारित है आज का इश्यू…
नक्सलवाद के िलए प्रशासन तंत्र को समझनी होगी िजम्मेवारी
छत्तीसगढ़ के सुकमा में हुए नक्सली हमले में दो दर्जन जवान मारे गये. यह हादसा रोका जा सकता था और तब जवानों की जानें भी बच जातीं. लेकिन, ऐसा नहीं हुआ, इसके पीछे मूलभूत कुछ कारण हैं. सबसे पहली बात यह कि राज्य पुलिस को सक्षम और ताकतवर बनाना बहुत जरूरी है. नक्सल से लड़ाई में राज्य पुलिस को आगे बढ़ कर मोर्चा लेना चाहिए. यह लड़ाई तभी जीती जा सकती है, जब राज्य पुलिस आगे-आगे हों और पीछे से केंद्रीय बल उनकी सहायता करें. वर्तमान में स्थिति ठीक इसके उल्टी है, केंद्रीय बल आगे बढ़ कर मोर्चा लेते रहते हैं और राज्य पुलिस उनके पीछे पिछलग्गू की तरह थोड़ा-बहुत साथ देती है.
राज्य पुलिस को अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी कि यह उनकी अपनी लड़ाई है, क्योंकि स्थानीय भूमि और लोगों की सारी जानकारी राज्य पुलिस के पास ही है. पुलिस और सिपाही स्थानीय भाषाओं को समझते हैं और उनको हर तरह की स्थानीय जानकारी है. इसलिए, इस लड़ाई में दोगुना ताल ठोक कर राज्य पुलिस आगे बढ़ेगी, तभी अपेक्षित सफलता हाथ लगेगी. लेकिन, अभी जो समीकरण है, यानी केंद्रीय बल आगे और राज्य पुलिस पीछे, इस समीकरण को उलटना पड़ेगा.
रमन सिंह 2013 में तीसरी बार छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री बने थे. उनके तीसरे कार्यकाल के भी तीन साल से ज्यादा हो गये यानी बीते 13 साल से वे छत्तीसगढ़ के मुखिया हैं. इतने साल में अब तो वहां से नक्सलवाद खत्म हो जाना चाहिए था. 13 साल का समय पर्याप्त था कि राज्य पुलिस बल इतना सक्षम, इतना प्रभावी बनाया जाये कि नक्सलियों से मोर्चा लेने में कभी विफलता हाथ ही न लगे.
लेकिन, ऐसा नहीं हुआ और इसके लिए राज्य सरकार को जवाब देना पड़ेगा. दूसरी महत्वपूर्ण बात, कांकेर में एक ब्रिगेडियर हैं, जिन्होंने मुझे चार-पांच साल पहले बताया था कि उन्होंने छत्तीसगढ़ में दस हजार जवानों को ट्रेंड कर चुके थे. तब उन्होंने दस हजार कहा था और अगर यह प्रक्रिया अब भी छत्तीसगढ़ में चल रही होगी, तो यह संख्या और भी ज्यादा हो गयी होगी. एक पूर्व पुलिस अधिकारी होने के नाते मैं समझता हूं कि दस-बारह हजार ट्रेंड बल बहुत है नक्सलियों को खदेड़ने के लिए. इस ट्रेंड बल का प्रयोग क्यों नहीं हो रहा है? कहां गया यह ट्रेंड बल? रमन सरकार को इसका जवाब देना चाहिए.
छत्तीसगढ़ हो या कोई अन्य राज्य, नक्सलियों से लड़ाई में पूरा प्रशासन तंत्र को अपनी जिम्मेवारी समझनी होगी, यह सिर्फ पुलिस की ही लड़ाई नहीं है. सुकमा हादसे में कहा गया कि दो-तीन सौ नक्सली थे. इन दो-तीन सौ लोगों की जानकारी उन तमाम आधिकारिक व्यक्तियों में से किसी को तो होगी ही. मसलन, वहां ब्लॉक विकास अधिकारी होंगे, पंचायत सदस्य और सरपंच होंगे, पटवरी होंगे, परगना अधिकारी होंगे, तहसीलदार होंगे.
अगर उस क्षेत्र में कोई खतरे वाली हरकत हो रही हो, तो किसी एक व्यक्ति को तो इसका अंदाजा होना ही चाहिए था, जो संबंधित विभाग को इसकी सूचना देकर आगाह कर देता. इसलिए यह सिर्फ पुलिस की विफलता नहीं है, बल्कि पूरे प्रशासनिक तंत्र की विफलता है कि एक क्षेत्र में इतनी बड़ी संख्या में दो-तीन सौ आदमी घूम रहे हैं और किसी को कानों-कान भनक तक न लगे. सवाल है कि ब्लॉक विकास अधिकारी, पंचायत सदस्य और सरपंच, पटवरी, परगना अधिकारी, तहसीलदार, ये लोग किस बात की तनख्वाह ले रहे हैं?
मुझे लगता है कि सीआरपीएफ के उस क्षेत्र के लिए विशेष प्रशिक्षित नहीं थे. उन शहीद जवानों को मेरी श्रद्धांजलि और मैं उनकी बहादुरी की तारीफ करता हूं. लेकिन, ये शहादत नहीं होनी चाहिए थी. अगर स्थानीय चीजों को समझ कर पुलिस और प्रशासन तंत्र की सांगठनिक सूझ-बूझ रही होती, तो इतने जवान शहीद नहीं हुए होते. इसका दूसरा नुकसान यह हुआ कि करीब 20-22 राइफल, 20-22 बुलेटप्रूफ जैकेट, ग्रेनेड लांचर, ये सब नक्सलियों के हाथ लग गये. ये सारे हथियार जवानों के खिलाफ ही ये नक्सली इस्तेमाल करेंगे.
इसमें एक बड़ा ही खतरनाक हथियार भी है- यूबीजीएल. यह एक प्रकार का ग्रेनेड लांचर है और यह सही ढंग से लांच हो जाये, तो दस लोगों की झटके में जान ले सकता है. नक्सली इसे भी उठा के ले गये. करीब सौ जवान थे, लेकिन फिर भी दो दर्जन जवान शहीद हो गये. जबकि, सौ ट्रेंड जवान 500 लोगों को खदेड़ सकते हैं.
छत्तीसगढ़ में दस हजार पुलिस की वेकेंसी खाली है, लेकिन सरकार उसे भर नहीं रही है. वहां 116 थाने ऐसे हैं, जहां कोई गाड़ी नहीं है.
आजकल के जमाने में बिना गाड़ी के कैसे थाना चलेगा? और तो और, 14-15 थाने ऐसे हैं, जहां टेलीफोन की भी व्यवस्था नहीं है, कि कोई सूचना ली-दी जा सके. सिर्फ आदमी बिठा रखा है सरकार ने. इस तरह की पुलिस व्यवस्था से बड़ी क्या छोटी भी लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती. छत्तीसगढ़ को आंध्र प्रदेश से सीखना चाहिए, जिसने अपने दम पर नक्सलियों को उखाड़ फेंका. उनका मोर्चा जिधर खुल जाता है, उधर से नक्सली भाग खड़े होते हैं. लेकिन, छत्तीसगढ़ राज्य का पूरा प्रशासन तंत्र ढीला है. (वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)
प्रकाश सिंह
पूर्व पुलिस महानिदेशक, उत्तर प्रदेश एवं असम
लाल-गलियारे में हिंसा के बढ़ते साये
24 अप्रैल, 2017 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में नक्सली हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान शहीद हो गये. पिछले सात वर्षों में नक्सलियों द्वारा किया गया यह सबसे बड़ा हमला है. इससे पहले 2010 में राज्य के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों के हमले में 75 सीआरपीएफ के जवान शहीद हो गये थे. हालिया हमला सड़क निर्माण में लगे मजदूरों की सुरक्षा में तैनात जवानों पर किया गया. इस हमले में 300 से अधिक की संख्या में हथियारबंद नक्सली शामिल थे. अर्धसैनिक बलों पर होनेवाले इस हमले ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया. ऐसे में यह सवाल उठना लाजिमी है कि आखिर कब तक हमारे जवान नक्सली हमलों में अपनी जान गंवाते रहेंगे.
सीपीआइ-माओवादी ने ली सुकमा
हमले की जिम्मेवारी
24 अप्रैल को सुकमा में सीआरपीएफ जवानों पर हुए हमले की जिम्मेवारी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी-माओवादी (सीपीआइ-माओवादी) ने ली है. दंडकारण्य जिला कमिटी के सीपीआइ-माओवादी प्रवक्ता निखिल उर्फ निरंजन राउत ने जवानों पर हुए इस कायराना हमले को ओडिशा में उसके कैडर के नौ लोगों की हत्या का बदला बताया है. इसके साथ ही पार्टी के नेता ने सुरक्षाकर्मियों और सरकारी प्रशासन में निचले पायदान पर काम कर रहे लोगों से नौकरी छोड़ने का भी आह्वान किया है.
2016 में नक्सली हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहा छत्तीसगढ़
केंद्रीय गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार पिछले वर्ष छत्तीसगढ़, झारखंड, बिहार, ओडिशा, आंध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, तेलंगाना, उत्तर प्रदेश और पश्चिम बंगाल नक्सली हिंसा से सर्वाधिक प्रभावित राज्य रहे. इन 10 राज्यों में बीते वर्ष 1048 नक्सली हमले हुए, जिनमें 395 के साथ छत्तीसगढ़ पहले, 323 के साथ झारखंड दूसरे और 129 वारदातों के साथ बिहार तीसरे स्थान पर रहा.
हाल की बड़ी नक्सली वारदातें और मुठभेड़
– 11 मार्च, 2017 को छत्तीसगढ़ के सुकमा जिले में सीआरपीएफ के कम-से-कम 12 जवान नक्सलियों के हमले में मारे गये थे.
– 8 मार्च, 2017 को बिहार के गया जिले में सीआरपीएफ के कमांडो बटालियन द्वारा नक्सलियों के साथ हुई मुठभेड़ में चार माओवादी मारे गये थे.
– 1 फरवरी, 2017 को ओडिशा के कोरापुट जिले में माओवादियों द्वारा किये गये सुरंग विस्फोट में आठ पुलिसकर्मी मारे गये थे.
– 5 अप्रैल, 2016 को सीपीआइ-माओवादी ने छत्तीसगढ़ में बस्तर जिले के दो और कांकेर जिले के एक ग्रामीण का अपहरण कर हत्या कर दी थी.
– 30 मार्च, 2016 को छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा जिले में नक्सलियों द्वारा किये गये विस्फोट में सीआरपीएफ के सात जवानों की जान चली गयी अौर तीन घायल हो गये थे.
– 29 मार्च, 2016 को सुरक्षा बलों के साथ हुई मुठभेड़ में तीन माओवादी मारे गये थे.
– केंद्रीय गृह मंत्रालय की रिपोर्ट के अनुसार, 2015 में माओवादी हमले में 315 लोग मारे गये, जिनमें 168 नागरिक, 58 सुरक्षा बलों के जवान और 89 नक्सली थे. इन हमलों में छत्तीसगढ़ में 145, झारखंड में 79, ओडिशा में 38, महाराष्ट्र में 20, बिहार में 19, आंध्र प्रदेश में 10 और तेलंगाना में चार लोग मारे गये थे.
छत्तीसगढ़ में हािलया बड़ी नक्सली हिंसा
– 19 जनवरी, 2017 को सुकमा जिले के एक ग्रामीण की माओवादियों ने उसकी दूकान में घुस कर गला काट दिया था.
– 18 जनवरी, 2017 को नारायणपुर जिले में माओवादियों द्वारा किये गये आइइडी विस्फोट में दो महिला और एक नाबालिग लड़की की मौत हो गयी थी.
– 17 जनवरी, 2017 को दंतेवाड़ा जिले में संभावित माओवादियों द्वारा एक ग्राम सरपंच की कुल्हाड़ी मार कर हत्या कर दी गयी.
– 1 फरवरी, 2016 को कांकेर जिला में माआेवादियों द्वारा किये गये आइइडी विस्फोट में सशस्त्र सीमा बल के दो जवान घायल हो गये थे.
– 11 फरवरी, 2016 को माओवादियों ने बीजापुर जिले में छत्तीसगढ़ सैन्य बलों को लक्ष्य कर पांच आइइडी विस्फोट किये थे, हालांकि इसमें कोई हताहत नहीं हुआ.
– 12 फरवरी, 2016 को बीजापुर जिले में माओवादियों द्वारा किये गये आइइडी विस्फोट में सीआरपीएफ का एक जवान घायल हो गया था.
– केंद्रीय गृह मंत्रालय के अनुसार, 1 जनवरी, 2016 से 15 नवंबर, 2016 के बीच माओवादियों ने कम-से-कम 64 नागरिकों की हत्या की थी.
कैसे निकलेगा इस समस्या का हल
2010 में छत्तीगढ़ के दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले के बाद गृह मंत्रालय ने बीएसएफ के डीजी इएन राममोहन के नेतृत्व में एक जांच समिति का गठन किया था. राममोहन ने तब कहा कि नक्सलियों का सामना करने में सीआरपीएफ नाकाफी हैं, क्योंकि उन्हें सिर्फ कानून-व्यवस्था संभालने का प्रशिक्षण दिया जाता है, न कि इस तरह से हमले का सामना करने का.
इसलिए नक्सल प्रभावित इलाकों में सीआरपीएफ की टुकड़ी की जगह आइटीबीपी या बीएसएफ की टुकड़ी को तैनात किया जाना चाहिए, क्योंकि वे इस तरह के हमले का सामना बेहतर तरीके से करने में सक्षम होते हैं. राममोहन ने यह भी कहा था कि आइटीबीपी और बीएसएफ भी इस समस्या से निपटने में पूरी तरह सक्षम नहीं हैं, क्योंकि उनकाे भी सीमा की सुरक्षा करने का प्रशिक्षण दिया जाता है. इस लिहाज से देखा जाये, तो माओवादी हिंसा सेना की समस्या से कहीं ज्यादा सामाजिक-आर्थिक समस्या है. इसलिए सरकार को इस समस्या से निपटने के लिए एक नये तरह के बल को तैयार करने की जरूरत है.
इन बलों को प्रशिक्षण के दौरान स्थानीय भाषा और इलाके की जानकारी दी जाये, साथ ही अधिकारियों और सैनिकों काे एक साथ प्रशिक्षित किया जाये. इस प्रकार सरकार को अपना खुद का नेटवर्क विकसित करने में सहायता मिलेगी. यहां आंध्र प्रदेश के कांग्रेस के दिवंगत मुख्यमंत्री वाइएस राजशेखर रेड्डी के बेहद सफल एंटी-माओवादी यूनिट, जिसे ग्रेहाउंड्स फोर्स कहा जाता था, की तर्ज पर काम करने की जरूरत है. इस फोर्स को वाइएएसआर ने बिना केंद्र की सहायता के तैयार किया था. इस दस्ते में आंध्र प्रदेश के चुने हुए पुलिसकर्मियों को रखा गया था.
कानून का पालन नहीं कर रही सरकार
बेला भाटिया
सामाजिक कार्यकर्ता
देश के प्रत्येक नागरिक के लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए हमारे संविधान में जो प्रावधान है, हमारी सरकारें उस पर खरी नहीं उतरती हैं. आजादी के इतने साल बाद आज भी हमारे देश में गरीबी, असमानता, शोषण और मानवाधिकारों का हनन है. देश के आम आदमी की आर्थिक स्थिति, सामाजिक स्थिति और राजनीतिक स्थिति बड़े लोगों और पूंजीवाद के चपेट में है.
इस चपेट से मुक्ति के लिए ही नक्सलवादी आंदोलन का जन्म हुआ और आदिवासी क्षेत्रों में जल-जंगल-जमीन को बचाने की लड़ाई शुरू हुई. बहुत पहले, चूंकि आदिवासी क्षेत्रों में गवर्नेंस बहुत कम था और सरकार अंदर तक पहुंची भी नहीं थी, लेकिन जो स्थानीय पुलिस पहुंची थी, उसका रवैया बहुत खराब था. इस रवैये का विरोध बढ़ता गया और नक्सलवाद फैलता गया. सरकार ने कानून बनाये हैं, लेकिन वह खुद ही उसका पालन नहीं करती है. और लोकतंत्र में सरकारों द्वारा कानून का पालन नहीं किया जाना, एक प्रकार का सरकारी हिंसा है. यह हिंसा ऐसे सामाजिक कारणाें को जन्म देती है, जिसके चलते लोग हिंसक बनते हैं और सरकार पर से उनका भरोसा उठ जाता है. देश में जब तक देश में गरीबी, असमानता और शोषण रहेगा, तब तक हिंसक समस्याएं मुंह फैलाती रहेंगी. आदिवासी क्षेत्रों में हिंसा से सबसे ज्यादा गरीब लोग ही परेशान होते हैं. हिंसा का शिकार होने के बाद उनका पूरा जीवन, परिवार और बच्चे इधर-उधर बिखर कर बहुत बुरी तरह से प्रभावित होता है. उनकी संस्कृति नष्ट हो जाती है.
साल 2005 से हम छत्तीसगढ़ में सिर्फ हिंसा ही देख रहे हैं, चाहे सरकारी हिंसा हो या फिर नक्सलियों की हिंसा हो. सरकार की नीतियां गरीब-विरोधी रही हैं, क्योंकि सरकार ने कंपनियों को इन क्षेत्रों में लाने की कोशिश की और आदिवासियों की जिंदगी में शामिल जल-जंगल-जमीन पर संकट मंडराने लगा. आदिवासियों में यह डर घर करने लगा कि सरकार की इन नीतियों के चलते उनके जीने के आधार ही छिन जायेंगे और इसलिए उन्होंने इसका विरोध करना शुरू किया. यही सबसे बड़ा कारण है नक्सली हिंसा का. सरकार अपनी शक्ति का इस्तेमाल कर खनिज और भू-संपदा का दोहन करना चाहती है, जिसका माओवादी विरोध करते हैं. इस हिंसा और फिर प्रतिहिंसा का एक चक्र चलने लगता है.
सरकार आदिवासियों और गरीबों के लिए नीतियां नहीं बना रही है, बल्कि उनके पास मौजूद संसाधनों को छीनने की कोशिश कर रही है. सरकार का यह काम ‘रूल ऑफ लॉ’ के खिलाफ है. सरकार के अंदर जो सुरक्षा बल हैं, वे भी कानून का पालन नहीं करते हैं. अगर वे पालन करते, तो आदवासियों की फर्जी मुठभेड़ में हत्याएं नहीं होतीं, उनकी महिलाओं-लड़कियों से बलात्कार नहीं होते. कई बार नक्सली हिंसा इन समस्याओं के कारण ही होती है. इसके बाद सुरक्षा बल भी माअोवादियों को उखाड़ फेंकने के लिए सख्त कार्रवाई करने लगते हैं. इस तरह एक चक्र बन जाता है और हिंसा खत्म नहीं होती. सरकार अगर इतना ही सुनिश्चित कर दे कि वह हर स्तर पर कानून का पालन करेगी, तो माओवादी हथियार ही नहीं उठायेंगे. सुकमा हिंसा से भी यही बात निकल कर आयी, जहां माओवादियों ने कहा है कि हम हिंसा नहीं चाहते, लेकिन हम पर संकट पैदा किया जा रहा है, तो हम उसका विरोध करते हैं.
ऐसा नहीं है कि किसी समस्या का अंत ही नहीं है. उसी तरह नक्सली समस्या का अंत भी हो सकता है. लेकिन, सवाल यह है कि क्या सरकार उनके अिधकारों की सुरक्षा करने की जिम्मेवारी लेगी? जिस तरह से आदिवासियों से कहा जाता है कि वे हथियार छोड़ें तो उनसे बातचीत होगी, ठीक उसी तरह सरकार से यह भी कहा जाना चाहिए कि वह आदिवासियों के शोषण की नीतियां बदले. दूसरी बात, जब भी इस देश में अहिंसक आंदोलन होता है, तो सरकार उसे हथियारों के दम पर कुचल देती है. यह लोकतांत्रिक तरीका नहीं है.
अगर कोई आंदोलन अहिंसक है, तो सरकार को भी जवान-हथियार परे रख कर बात करने की कोशिश करनी चाहिए. लेकिन क्या सरकार कभी ऐसा करती है? उदाहरण के तौर पर, वर्तमान में तमिलनाडु के किसान जिस तरह से अपनी मांगों को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं, अगर सरकार उनकी सुनती, तो किसानों को नंगा नहीं होना पड़ता. किसान हमारे अन्नदाता हैं, लेकिन उनके साथ ऐसा व्यवहार बहुत ही शर्मनाक है.
यह कितनी बुरी बात है. मान लीजिये, अगर ये किसान हिंसक हो जायें, तो सरकार उन पर फौरन जवानों को छोड़ देगी और वे हथियार लेकर हिंसात्मक रूप से किसानों को रोकने लग जायेंगे. फिर क्या स्थिति सामान्य होती? हथियार से कोई हल नहीं निकल सकता. यह एक बड़ी विडंबना है कि हम इतने बड़े लोकतंत्र होकर भी एक आम आदमी की बात को सरकार कभी नहीं सुनती और लोकतांत्रिक अधिकारों का शोषण करने के लिए हिंसा का रास्ता अख्तियार करती है, जिसे सुरक्षा का नाम दे दिया जाता है. आदिवासी क्षेत्रों की समस्याओं को भी इसी तरह से देखा जाना चाहिए.
अहिंसक आंदोलन को सरकार कुछ समझती ही नहीं है. इसीलिए मजबूरी में लोग हथियार उठाने के लिए मजबूर हो जाते हैं. सरकार और नक्सलियों के बीच लड़ाई में गरीब आदिवासी पिस रहा है. सरकार को रूल ऑफ लॉ का पालन करना चाहिए और कानून के दायरे में रह कर ही कोई कार्रवाई करनी चाहिए.
(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)

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