उमेश तिवारी
धनबाद : धनबाद कोयलांचल के विकास के लिए गठित खनिज क्षेत्र विकास प्राधिकार (माडा) के लिए यह विडंबना रही है कि इसकी लुटिया हमेशा राजनीति ने ही डुबोयी है.कभी इसके उत्थान की आड़ में निगम से इसे जोड़ने तो कभी इसके कर्मचारियों को दया का पात्र बना वर्षों से बकाये वेतन, एसीपी तथा अन्य लाभ दिलाने के नाम पर राजनीति होती रही है. वर्तमान में यहां बाजार फीस की राजनीति गरम है.
बाजार फीस माडा की उपज नहीं : जिस बाजार फीस के खिलाफ व्यवसायिक प्रतिष्ठान के मालिकों ने आसमान सिर पर उठा रखा है वह माडा की नहीं बल्कि राज्य सरकार की उपज है.
माडा तो केवल इसकी वसूली के लिए नोडल एजेंसी भर है. संबंधित मद में आने वाली राशि का आधा हिस्सा राज्य सरकार के खाते में जायेगा जबकि आधा में माडा के. माडा को इस राशि का 70 प्रतिशत खनिज क्षेत्र के विकास मद में खर्च करना है.
माडा को दान में नहीं मिला यह अधिकार : राज्य सरकार ने बाजार फीस वसूली का अधिकार माडा को दान में नहीं दिया है.
जलापूर्ति, नगर निवेषण, सफाई जैसे ढेर सारे दायित्व भी अपने कंधे पर ढोने वाला माडा से जब रॉयल्टी, टनेज सेस जैसे स्रोत छीन लिये गये तो बदले में आय के नये स्रोत के रूप में लैंडलूज टैक्स तथा बाजार फीस वसूली का जिम्मा इसे दिया गया.
इसका हश्र सामने है. लैंडलूज टैक्स का एक पैसा भी माडा के हाथ नहीं लगा मामला सर्वोच्च न्यायालय में वर्षों से लंबित है. वहीं बाजार फीस आठ साल मिली भी तो स्थिति यह है कि इसके खिलाफ हाय तौबा मची है.
राजग सरकार की देन है बाजार फीस: बाजार फीस 2006 की भाजपा समर्थित राजग सरकार की देन है. इसे लाने वाले तत्कालीन नगर विकास मंत्री रघुवर दास आज मुख्यमंत्री हैं. जो स्थानीय जनप्रतिनिधि आज इसका विरोध कर रहे हैं वह उस समय यहां के विधायक की हैसियत सरकार के नीति निर्धारण में साथ थे.
अब जब यह मुद्दा सरकार के गजट में शामिल हो चुका है तथा व्यवसायी इसके खिलाफ न्यायिक लड़ाई का हश्र देख चुके हैं, अब इसके विरोध का क्या औचित्य है.
क्यों हटाया री स्टोर का केस : बाजार फीस के खिलाफ आंदोलन करने वालों पर भी सवाल उठ रहा है.
अगर बाजार फीस सरकार व माडा का अव्यवहारिक कदम है तो माडा के पक्ष में फैसला आने के बाद आंदोलन करने वालों ने इसके खिलाफ जो केस री स्टोर की अपील की थी, इसे क्यों उठा लिया गया.
चित भी मेरी, पट भी मेरी! : बाजार फीस के खिलाफ केस व्यवसायिक प्रतिष्ठानों ने ही किया था. केस करते समय उन्हें ध्यान रख चाहिए था कि केस हारने पर बाजार फीस की राशि उसी तिथि से चुकानी पड़ेगी जबसे अधिसूचना जारी हुई है.
अब केस हारने के बाद यह मांग की बाजार फीस देनी भी पड़े तो अब से देंगे, 2006 से नहीं. इसका मतलब तो यही हुआ न कि चित भी मेरी और पट भी मेरी.