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जीवन का फलसफा सिखा गया यह चुनाव
शरत दुदानी मैं पहली बार चुनावी दंगल में उतरा. पहली बार चुनाव लड़ रहा था वो भी स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में. चुनाव लड़ना तो कई वर्षो से चाहता था. मुङो जानने-समझने वाले लोग भी चाहते थे कि मैं उनका प्रतिनिधित्व करूं, क्योंकि राजनीति मुङो विरासत में मिली है. सच बताऊं तो ये दिल और […]
शरत दुदानी
मैं पहली बार चुनावी दंगल में उतरा. पहली बार चुनाव लड़ रहा था वो भी स्वतंत्र प्रत्याशी के रूप में. चुनाव लड़ना तो कई वर्षो से चाहता था. मुङो जानने-समझने वाले लोग भी चाहते थे कि मैं उनका प्रतिनिधित्व करूं, क्योंकि राजनीति मुङो विरासत में मिली है. सच बताऊं तो ये दिल और दिमाग का अंतर्द्वद्व ही था.
दिल कहता था कि लड़ जा. दिमाग कहता था कि यार क्यों इस दलदल में पड़ते हो? ये तुम्हारे काम की चीज नहीं है. तुम्हें विरासत में मिली है नि:स्वार्थ सेवा, निष्ठा, सच्चाई, ईमानदारी आदि.. जो आज-कल केवल जुमला भर है. कमजोर लोगों की फिलॉसफी है. आज के एडवांस टेक्नोलॉजी के युग में, जहां यूज एंड थ्रो का महत्व बढ़ गया है. ये सारी बातें बकवास है.
पर बचते-बचाते भी दिल के सामने दिगाम हार गया. जैसे अक्सर प्यार में होता है. जो हुआ वो सामने हैं.
कहानी आज की नहीं 1991 की है. जब पिताजी (स्व. सत्यनारायण दुदानी) जैसे कद्दावर, सम्मानित, समर्पित कार्यकर्ता जिन्होंने अपने जीवन का स्वर्णिम पल पहले जनसंघ फिर भारतीय जनता पार्टी के लिए समर्पित कर दिया, उनका बलिदान सिर्फ इसलिए मांग लिया गया कि शायद वो पार्टी को धनबाद लोकसभा में जीत नहीं दिला पायेंगे. इतना बड़ा अविश्वास एक समर्पित कार्यकर्ता के प्रति.
पिताजी ने पार्टी में त्याग की मिसाल कायम की, जो अपने आप में एक उदाहरण बन गया. पर फिर क्या हुआ? कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार, अनुशासित कार्यकर्ता को सम्मान मिलने की जगह तिस्कार मिला, क्योंकि उन्होंने अपने त्याग की कोई कीमत नहीं चाही, कभी पटना, रांची, दिल्ली इस कारण से नहीं गये उन्हें विधान परिषद या राज्यसभा भेजा जाये. पार्टी में उचित स्थान देकर उनके अनुभवों का लाभ लिया जाये.
60 साल की उम्र थी. उनमें काम करने का जज्बा था, पर लोगों को ये पसंद नहीं था. तो आज की भागती-दौड़ती दुनिया ने बस उस इंसान को दीवार पर टंगी महापुरुषों की तसवीर बना दी, जो केवल नमन करने के लायक थी, स्वीकार करने योग्य नहीं. उनकी आंतरिक पीड़ा को मैंने देखा और समझा था. इन्हीं सब कारणों से पिताजी मुङो भी राजनीति में अनफिट मानते थे. और सदा इससे दूर रहने की सलाह देते थे.
पर, क्या करूं समाज सेवा डीएनए में थी, कहां जाता.भिन्न-भिन्न संस्थाओं के माध्यम से समाज के प्रति अपने दायित्वों का कुछ-कुछ निर्वाह करता रहा. समाज का कर्ज भी तो चुकाना था.
दिल में लगी आग को सामाजिक कामों के शीतल जल से बुझाने का प्रयास निरंतर चालू था. लोग मेरे प्रतिष्ठान पर आते या जहां भी मिलते मुङो राजनीति में आने के लिए प्रेरित करते. कुछ निष्ठा से, तो कुछ लाभ पाने की लालसा में. मैं समझता सब था, पर मुस्कुरा कर शांत हो जाता था. मुङो लगता था कि समाजसेवा को रूप में मैं ज्यादा पॉजेटिव अंशदान कर पा रहा हूं.
दबाव से मुक्त हूं. शुद्ध अंत:करण से निर्णय कर पा रहां हूं. झूठ को झूठ, सच को सच कहने का साहस है मुझमें. सामाजिक एवं धार्मिक विसंगतियों के बीच में सम रह पा रहा था. इसका प्रतिफल भी मिला. समाज ने मुङो सम्मान दिया. अपने दिल में जगह दी. पर फिर भी आग दिल में थी. ठीक झरिया की आग की तरह. जितना दबाओं बढ़ती जाती है, कभी शांत नहीं हो पायी. कुछ तो अपनों ने कुरेदा, कुछ बड़े नेताओं ने. फिर क्या था पार्टी से टिकट का आग्रह कर दिया. आश्वासन भी मिला, पर रणनीतिकारों की चालों के आगे चारों खाने चित. टिकट नहीं मिला, फिर वहीं 1991 की टीस हरी हो गयी. सोचा कि क्या सारा अनुशासन, त्याग, हमारी जिम्मेवारी है.
कब तक सहें हम और क्यों? जो कल करना है क्यों न उसे आज ही किया जाये. पार्टी बड़ी है या राष्ट्र? क्या हमारा दायित्व राजनीति को साफ रखने का नही हैं? स्वार्थी तत्वों के बोलबाले पर क्या निष्ठावान कार्यकर्ता अपनी बलि चढ़ाते रहेंगे? क्या यह ठीक होगा? चुप रहकर सब देखना, सहना. दिल ने कहा नहीं ये गलत होगा. धर्म के रक्षार्थ यदि अधर्मी दोस्त से भी लड़ना पड़े तो लड़ों. यही धर्म है. यही कर्तव्य है. इस मौके पर अनायास ही मैथिली शरण गुप्त की ये पंक्तियां याद आ गयीं-
‘‘अन्याय सहकर चुप रहना, यह महा दुष्कर्म हैं
न्यायार्थ अपने वंधुओं को दंड देना धर्म है.’’
समस्या जटिल थी. बड़े नामधन दलों के विरोध में लड़ना था. लंबा अनुभव था. बड़ा धन था. नेताओं की लंबी कतार थी. फिर भी साहस किया. क्योंकि चयनित प्रतिनिधि का घोर विरोध था. लोगों के विचार जानने के लिए 8-10 जगहों पर बैठकें की. भाई साहब आपको क्या बताऊं? लोगों ने मुङो हाथों-हाथ लिया. जितना आक्रोश चयनित प्रत्याशी के प्रति था, उतना ही सम्मान मेरे प्रति.
लोगों में जोश हराने का एवं विश्वास परिवर्तन का था. बस फिर क्या था कार्यकर्ताओं से, मित्रों से सलाह-मशवरा हुआ. खोने को कुछ नहीं था. पारिवारिक परंपराओं आदर्शो को जमा कर कुछ मिलना नहीं था. सब बेवकूफ बनाने के शस्त्र थे, पर पाने को सब कुछ था.
24 नवंबर को नामांकन कर चुनाव में उतर पड़े. 18 दिनों में शून्य से चलकर शिखर पर पहुंचना था. काम बड़ा था. सुबह 5.30 बजे से रात्रि 12.00 तक मेहनत की. लोगों का अपूर्व सम्मान एवं अगाध प्रेम मिला. पहली बार पता चला कि सत्यनारायण दुदानी व्यक्ति नहीं, एक विश्वास थे.
इंसान नहीं, आदर्श थे. जोश को यानी पंख लग गये. लोगों से मिलकर अपने आपको गौरवान्वित महसूस करता था. परमपिता परमेश्वर का शुक्रिया अदा करता था. लोग बड़ी संख्या में बढ़ चढ़कर उत्साह से मुझसे मिलते, हर जगह एक ही बात थी कि ‘‘माननीय को वोट देने का सवाल ही नहीं उठता. जो पांच साल नहीं दिखें, उनको वोट देना तो दूर बैठायेंगे भी नहीं.’’
‘‘मोदी जी की हवा हैं, पर यह राज्य का चुनाव हैं. प्रत्याशी देखकर वोट देंगे.’’
‘‘मंदिर के लिए सहयोग की मांग की, बेटी के विवाह में सहयोग मांगा तो बेइज्जत किया. साइकिल, मेडिकल की अनुशंसा भी नहीं की.’’
‘‘चापाकल, डीप बोरिंग अपने लोगों के आंगन में लगवा दिया इत्यादि.’’
‘‘आप शिक्षित हैं, ईमानदार हैं, घर के सामने के हैं, रात-दिन जा सकते हैं. आपके परिवार में नि:स्वार्थ सेवा की परंपरा रही हैं. वोट तो बस आपको ही देंगे.’’ ‘‘पार्टी ने टिकट नहीं दिया, बहुत गलत किया. अगर दिया होता तो आज एक लाख से ऊपर के वोटों से जीतते.’’
इन बातों से मनोबल बढ़ता चला गया. लगा निर्णय ठीक हुआ है. पर पोलिंग के ठीक 48 घंटे पहले लोगों के चेहरे बदलने लगे थे.
अब वो सपाट हो चले थे. वोट जातिवाद, संप्रदायवाद एवं धन-बल के आधार पर बंटने लगे थे. 23 दिसंबर को रिजल्ट आया. जिसको कोई नहीं चाहता था, वहीं विजयी हुआ. बस आंकड़े रह गये, व्यक्ति गौण हो गया. आंकड़े के मापदंड पर व्यक्ति की प्रतिभा एवं ईमानदारी थी. आंकड़ेबाजों ने अपने गिरेबां में झांककर नहीं देखा. फिर भी हारने को कुछ था नहीं, पर पाया नया अनुभव. नये मित्र साथी, जिन्होंने नि:स्वार्थ भाव से सहयोग किया. लोगों का प्यार मिला. साथियों एवं सहयोगियों में छुपे जयचंदों को पहचाना, क्योंकि वक्त से आदमी की पहचान होती है एवं आदमी से वक्त की.
मैं संतुष्ट हूं, खुश हूं. ये तो शुरुआत थी. भविष्य हमारा होगा, ईमानदारों का होगा, नि:स्वार्थ पथ पर चलने वालों का होगा. ऐसा अट्टू विश्वास है. हरिवंश राय बच्चन की पंक्तियां याद आती हैं :
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती
नन्हीं चींटी जब दाना लेकर चलती है
चढ़ती दीवारों पर सौ बार फिसलती है
मन का विश्वास, रगों में साहस भरता है
चढ़कर गिरना, गिरकर चढ़ना ना अखरता है
आखिर उसकी मेहनत बेकार नहीं होती
कोशिश करनेवालों की कभी हार नहीं होती.
असफलता एक चुनौती है, इसे स्वीकार करो
क्या कमी रह गयी है, इसे देखो और सुधार करो
जब तब न सफल हो, नींद चैन को त्यागो तुम
संघर्ष करो, मैदान छोड़कर न भागो तुम
कुछ किये बिना ही जय-जयकार नहीं होती
कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती.
(लेखक जानेमाने व्यवसायी और समाजसेवी हैं.)
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