धनबाद: हमारे समय में परंपरा के अनुसार मां की आराधना होती थी. संध्या में पूजा स्थल पर भजन-कीर्तन होता था. उस समय बिजली नही थी. ढिबरी और लालटेन की रोशनी में भजन-कीर्तन होता था. जाति-धर्म का बंधन न था. भोला मियां जिसे सब चचा कहते थे ढोलक बजाते थे. उनके ढोलक की थाप पर भजन का दौर चलता था. सब मिलकर पूजा करते थे.
अब तो बस पूजा आडंबर और कंपीटीशन बनकर रह गयी है. भक्ति भावना कम दिखती है. ऐसा कहते हैं कस्तूरबा नगर, लुबी सर्कुलर रोड के रहनेवाले रिटायर डिप्टी कमिश्नर (कॉर्मिशयल टैक्स) अनंत नारायण लाल. अतीत के गलियारे में लौटते हुए बताते हैं : ‘आज मैं 90 साल का हो गया हूं. मेरा गांव नैयाडीह (गिरिडीह) में था. वहां मेला नही लगता था.
मेरी बुआ गावां में रहती थी. वहां चार दिनों का मेला लगता था. मेरे घर से बुआ का घर छह किलोमीटर दूर था. उस समय आवागमन के साधन न के बराबर थे. मेरे पिता राजू लाल का अबरख का व्यवसाय था. तीन भाई-बहन में मैं सबसे छोटा था. पिता से मेला घूमने के लिए एक रुपया मिलता था. मैं पैदल जंगल के रास्ते बुआ के यहां पहुंच जाता. चार दिनों तक मेला घूमता. पसंद के खिलौने खरीदता. मुझे जलेबी बहुत पसंद दी. गरम जलेबी अधेला में मिलती थी. छंद और धार्मिक पुस्तकें खरीदता था.
दशमी के दिन रामलीला देखने मैदान में सभी जमा होते थे. भारी भीड़ उमड़ती थी. उस समय का आदिवासी नृत्य पूजा की जान हुआ करता था. मांदर की थाप पर आदिवासी महिलाएं-पुरुष नृत्य किया करते थे. आज भी आदिवासी नृत्य जेहन में तरो ताजा है. हमारे समय में विजया दशमी मिलन होता था. मिलन का पर्व था दशहरा. दशमी के दिन बड़ों का आशीर्वाद लेने जरूर जाते थे.’ श्री लाल के साथ उनकी पत्नी आशा देवी, बेटा हेमंत कुमार, बहू सुनीता, पोता हंसराज, निशिकांत, बहू पूनम, पोती सिया राजल, पोता आदित्य राज रहते हैं.