जैन धर्म सृष्टि को अंतहीन मानता है, वह हिंदुओं के ब्रह्म को नहीं मानता. परंतु अन्य हिंदू देवी-देवता उनके मंदिरों में मिलते हैं. इस धर्म में भक्ति तथा ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है. अनेक जैन ग्रंथों जैसे हेमचंद्र के ‘योगसूत्र’ में अनेक आसनों का उल्लेख है जो तंत्र तथा योग के आसनों से मिलते-जुलते हैं. सुभद्र के ‘ज्ञानार्णव’ (800 ई) में योग संबंधी अनेक परिच्छेद है जिनमें आसन, प्राणायाम, मंडल, धारणा तथा ध्यान आदि विस्तृत प्रकाश डाला गया है. कुछ अन्य ग्रंथों में न्यास के विषय में लिखा गया है. न्याय से ही योगनिर्दा की तकनीक का विस्तार हुआ है. जैन ग्रंथों के अवलोकन से हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि यह धर्म बहुतांश में तंत्र से प्रभावित था. 15वीं शताब्दी के जैन ग्रंथ ‘तत्वाथंसार दीपिका’ में कुंडलिनी तथा शरीरगत प्राण-शक्ति के केंद्रों के जागरण की अनेक तकनीकों का वर्णन मिलता है. साधकों से चक्रों के स्थानों का मानसदर्शन करने के लिए कहा जाता था.
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प्रवचन:::: जैन धर्म सृष्टि को अंतहीन मानता है
जैन धर्म सृष्टि को अंतहीन मानता है, वह हिंदुओं के ब्रह्म को नहीं मानता. परंतु अन्य हिंदू देवी-देवता उनके मंदिरों में मिलते हैं. इस धर्म में भक्ति तथा ध्यान का महत्वपूर्ण स्थान है. अनेक जैन ग्रंथों जैसे हेमचंद्र के ‘योगसूत्र’ में अनेक आसनों का उल्लेख है जो तंत्र तथा योग के आसनों से मिलते-जुलते हैं. […]
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