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फिल्म शोले के जय-वीरू जैसी थी दोस्ती

बोकारो: बचपन में पढ़ाई से ज्यादा किसी तरह स्कूल से बंक कर फूल ऑन एसी में बैठ कर फिल्में देखने की कोशिश में ध्यान लगा रहता था. बेसब्री से शुक्रवार का इंतजार रहता था. जिस विषय पर मन नहीं लगता उसी क्लास को बंक कर देते थे. करीब 14 दोस्तों की टोली पहले खास प्लानिंग […]

बोकारो: बचपन में पढ़ाई से ज्यादा किसी तरह स्कूल से बंक कर फूल ऑन एसी में बैठ कर फिल्में देखने की कोशिश में ध्यान लगा रहता था. बेसब्री से शुक्रवार का इंतजार रहता था. जिस विषय पर मन नहीं लगता उसी क्लास को बंक कर देते थे.

करीब 14 दोस्तों की टोली पहले खास प्लानिंग करती थी. उसके बाद स्कूल से रफूचक्कर होकर सेक्टर चार स्थित देवी सिनेमा हॉल में सिनेमा देख आते. देवी हॉल की पहली फिल्म काला पत्थर का लुत्फ भी झालमुढ़ी के साथ उठाया था. खास बात यह थी किसी दोस्त के पास पैसे न होने पर पूरी टोली मिल कर उसके लिए टिकट खरीदती थी.

जो भी फिल्में देखी, साथ-साथ देखी. बिल्कुल हम साथ-साथ हैं जैसे. दोस्ती फिल्म शोले की जय-वीरू जैसी थी. एक बार एक दोस्त के पास टिकट के लिए पैसे नहीं थे.

टोली में भी किसी के पास एक्स्ट्रा पैसे न होने के कारण एक दोस्त ने फिल्म देखने से मना कर दिया. इस पर टोली के एक सदस्य ने कहा : कुछ भी हो जाये, ये दोस्ती हम न छोड़ेंगे. इसी पर पूरी टोली ने उस सप्ताह फिल्म देखने नहीं गयी. अक्सर जब काम से थक जाता हूं तो आंख बंद कर टोली के संजय पारख व स्वर्गीय नरेंद्र सिंह की मौज-मस्ती को याद कर थकान दूर कर लेता हूं.

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