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पौरुष मर गया है देश का

-हरिवंश- महुआटांड़ ब्लॉक में वह अंतिम रात थी. पलामू की यात्रा का अंतिम छोर, सुगी गांव के एक क्रिश्चियन परिवार में हम ठहरे थे. क्रिश्चियन बनने के पूर्व के हरिजन थे. रात में अयाचित अतिथि के रूप में चार लोगों को देख कर वे मायूस नहीं हुए, हुलास और उमंग से स्वागत किया. थालों में […]

-हरिवंश-

महुआटांड़ ब्लॉक में वह अंतिम रात थी. पलामू की यात्रा का अंतिम छोर, सुगी गांव के एक क्रिश्चियन परिवार में हम ठहरे थे. क्रिश्चियन बनने के पूर्व के हरिजन थे. रात में अयाचित अतिथि के रूप में चार लोगों को देख कर वे मायूस नहीं हुए, हुलास और उमंग से स्वागत किया. थालों में पानी लेकर पैर धोने आये. त्रिदीव दा अनमने लगे.

कहा, पैर धुलवाना सामंती प्रथा का अवशेष है, सही है. हमारा आग्रह उनसे हाथ धोने का हुआ. उन्होंने हाथ धोकर अतिथि स्वागत किया. मेरा मन अटक गया था, भारत के उन गांवों में जहां आज भी उदात्त मन है. अभाव-गरीबी के बावजूद अतिथियों के प्रति सम्मान भाव है. शहर में हर सुख-सुविधा के बावजदू, अयाचित अतिथियों को देख कर लोग मुरझा जाते हैं. तो क्या समृद्धि और संकीर्णता में परस्पर रिश्ता है?

हड्डी भेदनेवाली उस ठंड में भी घर की महिलाओं ने बुझे चूल्हों को पुन: सुलगाया. इस परिवार के पुरुष बातचीत करने लगे. महिलाएं पानी लायीं. सुबह उठ कर पाया कि वह पानी दूर नदी से लाया गया था. क्या हो गया. इस देश के पौरुष को? क्यों कोई महान काम-बड़े सपने देखने में भी हम असमर्थ हो चुके हैं? लगभग दो वर्षों पूर्व लीबिया जैसे छोटे देश के लोगों ने अपने रेगिस्तान में लगभग साढ़े चार हजार किलोमीटर लंबी नदी बना कर, मानव संकल्प का नया इतिहास रचा.

लीबिया में नदी नहीं है, जो उनकी प्यास बुझा सके या उनकी धरती को हराभरा कर सके. सर्वेक्षणों से पता चला कि सहारा रेगिस्तान के लीबियाई हिस्से के कुफा, तजबों और सरीर के नजदीक स्थित लगभग पौने तीन सौ कुओं में अपार जल है. कर्नल गद्दाफी ने एक महत्वाकांक्षी योजना बनायी. कृत्रिम नदी बनाने की. योजना कितनी बड़ी थी, इसका अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि जल ले जाने वाले पाइपों को बांधने के लिए प्रयुक्त धातु के तार की लंबाई इतनी थी कि उससे पृथ्वी को ढाई सौ बार लपेटा जा सकता है. कोरियाई इंजीनियरों की मदद और लगभग सवा तीन सौ खरब रुपये के खर्च से यह योजना सिर्फ छह साल में पूरी हो गयी.

40 लाख की आबादी का देश यह कर सकता है, पर 80 करोड़ लोगों के देश में आज भी महिलाएं दूर-दूर से पानी ढो कर लाने के लिए विवश है. चीन में ”ह्वांग्हो नदी अभिशाप मानी जाती थी. माओ के नेतृत्व में करोड़ों चीनियों ने ””ह्वांग्हो को बांध दिया. 30 साल पहले डॉ केएल राव ने गंगा को कावेरी से जोड़ने का सपना देखा. क्या हुआ? हमारी नदियों का चौथाई पानी समुद्र में बेकार बह जाता है. पर बड़ी आबादी पानी के लिए तरस रही है.

मिस्त्र के साहित्य में नोबल पुरस्कार विजेता नागुइब महफूज याद आते हैं. हाल ही में उन्होंने कहा है कि उदासी और अनमनेपन से उबरने और महान सपने देखने के लिए मैं गांधी, टैगोर और इकबाल की ओर मुखातिब होता हूं. आगे कहते हैं कि भारत के वे महान सपने अब बिखर रहे हैं. महान पुरुष और विजनरी नेता अब नहीं रहे, जो भारत को महान बना सके.

सुगी गांव के उस परिवार की व्यथा, उस पूरे सूबे की पीड़ा का प्रतिबिंब है. परिवार का मुखिया सेना में रहा, पर उसे नौकरशाही के सौजन्य से पेंशन नहीं मिल रही. दो वर्षों पूर्व एक कथित क्रांतिकारी युवा संगठन का काम करने का एक युवा उस गांव गया. उसी घर में रहा. उस घर की लड़की से शादी का प्रस्ताव किया. साथ रहे. बच्चा हुआ, तो वह रांची आ गये. फिलहाल वह उस संगठन के एक बड़े नेता के साथ रहते हैं. अब दूसरी शादी करने जा रहे हैं.

उस परिवार और गांव के अनेक लोगों ने कहा, रांची में आप हमारी फरियाद उन तक पहुंचाएं, वह परित्यक्त लड़की एक वर्ष का बच्चा लिये भींगी आंखों से सुबकते हुए पूरा दास्तान सबको सुनाती है. राजनीति की पाठ पढ़ाने और लोगों का भाग्य संवारने गांवों में गये ऐसे युवक या राजनीतिक कार्यकर्ता क्या कर पाएंगे? शायद खीझ कर रामनंदन मिश्र कहा करते थे कि बिहार की मि˜ट्टी इतनी अनुर्वर या बंजर हो गयी है कि कोई भी बीज डालो वे उगते नहीं. सड़ जाते हैं. सौराष्ट्र के 86 वर्षीय डॉ शिवानंद याद आते हैं. वीरानगर के नितांत पिछड़े गांव में (आबादी 8000) 225 बेड के अस्पताल का निर्माण करवाया जनसयोग से. पिछले 36 वर्षों से प्रत्येक माह हजारों आंखों का मुक्त ऑपरेशन वे करते हैं. गरीबों की उचित चिकित्सा, 4 बजे सुबह उठना. गीता-कुरान पढ़ना. उनकी इच्छा है ‘बीमार की सेवा करते हुए मरना.’

18 वर्षों पूर्व एथ्रोपालॉजी के विद्यार्थी पीके एस माधवन अपनी जन्मभूमि केरल से आंध्र के महबूब नगर आये. चेंचू जनजाति का अध्ययन करने. तेलंगाना के चार जिलों में हरिजनों-आदिवासियों की भयावह स्थिति देख कर माधवन अपना अध्ययन भूल गये. वह वहीं बस गये. आंध्र के हजारों आदिवासी गांवों में उन्होंने जीवन को बेहतर और समृद्ध बनाया है. वह ‘बेयरफूट, मसीहा’ (नंगे पैर चलने वाले देवदूत) कहे जाते हैं.

डॉ शिवानंद या माधवन पर अलग से लंबी रिपोर्ताज हो सकती है. पर बिहार या पलामू की धरती पर ऐसे नि:स्वार्थ लोगों के आगे आने का माहौल भी क्यों और कब खत्म हो गया? यह हर बिहारवासी के लिए सोच-चिंता का विषय होना चाहिए.

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