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लोकतंत्र का फरेब !

-दर्शक- लोकतंत्र फरेब है, कहा था नक्सलियों ने. पर इसे सिद्ध कर चुके हैं, झारखंड के दल, विधायक और नेता. तीन सप्ताह से तमाशा चल रहा था. बयानों का. काउंटर बयानों का. सरकार थी या नहीं, कोई भी नहीं जानता. यह झगड़ा निजी था या सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित, यह भी अस्पष्ट है. हां, एक […]

-दर्शक-

लोकतंत्र फरेब है, कहा था नक्सलियों ने. पर इसे सिद्ध कर चुके हैं, झारखंड के दल, विधायक और नेता. तीन सप्ताह से तमाशा चल रहा था. बयानों का. काउंटर बयानों का. सरकार थी या नहीं, कोई भी नहीं जानता. यह झगड़ा निजी था या सामाजिक उद्देश्य से प्रेरित, यह भी अस्पष्ट है. हां, एक चीज दिखाई दे रही थी. सारी लड़ाई व्यक्तिपरक है. कुरसी के लिए. सत्ता के लिए. सत्ता और कुरसी क्यों? पैसा के लिए और आधुनिक राजा बनने के लिए. कानून से ऊपर उठने के लिए.
कोई पूछे झामुमो और भाजपा के नेताओं से – आपकी लड़ाई में लोक मुद्दे कहां थे? शहरों में लगातार जाम बढ़ रहा है. पीने के पानी के लिए हाहाकार है. झारखंड के कई शहरों में जलाशय सूख गये हैं या सूखने के कगार पर हैं. पर नेता, कुरसी और सत्ता के प्यासे हैं. जनता के कर से श्रेष्ठ सुविधाओं का उपभोग करते हुए. इन नेताओं की काबिलियत क्या है? अगर किसी प्रतिस्पर्द्धा में बैठा दिया जाये, तो सबकी योग्यता सार्वजनिक और साफ हो जायेगी. बिजली के लिए रोज लोग सड़कों पर उतर रहे हैं. अदालत रोज टिप्पणी कर रही है. कोई सुन नहीं रहा. बिजली, पानी, सड़क, कानून-व्यवस्था, हर मोरचे पर अराजकता की स्थिति है.

इन्हीं चीजों को बेहतर करने के लिए लोकतंत्र में सरकारें बनती हैं. जनप्रतिनिधि चुने जाते हैं. विधानसभा गठित होती है, जनता के पैसे से हजारों हजार करोड़ इनके रख रखाव और तामझाम पर खर्च होता है. पर जब ये संस्थाएं ही लोगों की बुनियादी समस्याओं को ‘अटेंड’ न करें, हल न करें, तो लोकतंत्र को ध्वस्त करने का आरोप किस पर लगेगा? लोकतंत्र के नाम पर जो संस्थाएं हैं, सरकार, राजनीतिक दल, विधानसभा, यही दोषी हैं न. अगर अपनी एकाउंटेबिलिटी और जिम्मेदारी ये संस्थाएं नहीं समझेंगी, तो लोकतंत्र खत्म होगा. और यह काम नक्सली नहीं कर रहे.

झारखंड में लोकतंत्र चलाने के लिए तय संस्थाएं कर रही हैं.दो प्रमुख शासक दलों, झामुमो और भाजपा में अंदरुनी लोकतंत्र की क्या स्थिति है? झामुमो में रोज नये स्वर उभरते रहे. एक गुट कुछ और कहता था, दूसरा कुछ और. तीसरा स्वर भी सुनायी देता था. दल एक, आवाज अनेक. आप समझ नहीं सकते कि दल का किस मुद्दे पर क्या स्टैंड है.
भाजपा की हालत और बदतर साबित हुई. भाजपाई ही कह रहे थे कि सरकार बनने में मूल पेंच भाजपा की अंदरुनी लड़ाई थी. रांची से दिल्ली तक भाजपा नेताओं को विरोधियों की जरूरत नहीं. एक दूसरों को ही पछाड़ने और नीचा दिखाने में लगे हैं. भीतर-भीतर एक दूसरे की काट . कहा जा रहा है कि पार्टी के दो तिहाई विधायक अर्जुन मुंडा के साथ हैं. झारखंड से चुने गये अधिसंख्य भाजपाई सांसद भी थे, मुंडा के साथ. जिलाध्यक्ष साथ हैं. पर पार्टी का एक प्रभावी तबका दिल्ली से ही अर्जुन मुंडा के खेमे को विफल करने में लगा था.

इस खेमा का मकसद था, दिल्ली भाजपा के शीर्ष नेताओं में चल रहे अंदरुनी युद्ध में एक लॉबी को परास्त करना. हद तो तब हो गयी, जब भाजपा ने 23 मई को समर्थन वापसी की घोषणा की. और 24 मई को झारखंड भाजपा कार्यालय से परस्पर विरोधी खबरें आ रही थीं. अध्यक्ष रघुवर दास का खेमा कुछ और कह रहा था. अर्जुन मुंडा का खेमा कुछ और. कहीं पार्टी ऐसे चलती है? पार्टी के प्रभारी नाराज होकर ओड़िशा चले गये हैं. जो दल जाति, अहंकार, झूठ-फरेब और अपनों के खिलाफ ही षडयंत्र में पारंगत हो जायें, उसे दुश्मन की जरूरत नहीं. भाजपाई कालिदास की भूमिका में हैं. जिस डाल पर बैठे, उसे ही काटने में लगे हैं.

इस तरह भाजपा और झामुमो दोनों अपनी अंदरुनी लड़ाई से लोकतंत्र को अविश्वसनीय बना चुके हैं. इनकी न कोई नीति थी, न सिद्धांत, न आदर्श. सिर्फ सत्ता भोग की भूख से प्रेरित थे.इन अयोग्य और अहंकारी नेताओं को नहीं मालूम होगा कि लोकतंत्र के प्रति जन आस्था पैदा करने के लिए कितनी कुर्बानियां दी गयी हैं.18वीं शताब्दी में फ्रांस, स्पेन, पर्सिया और आस्ट्रिया में राजतंत्र (राजा भगवान का प्रतिनिधि माना जाता था) के खिलाफ जब आवाज उठी, तो उसकी क्या कीमत चुकायी लोगों ने? तब तीन चीजों ने दुनिया को बदला. द रेनेशां (पुनर्जागरण), द रिफार्मेशन (सुधार) और नाविकों द्वारा नये देशों, महाद्वीपों की खोज. पुनर्जागरण आंदोलन के गर्भ से ही निकला छपाईखाना (प्रेस). इसी प्रेस का सबसे पहला और प्रखर संतान हुआ, सुधारों का आंदोलन. जॉन लॉके जैसे दार्शनिक हुए. इन सबके प्रयास से पहली बार ब्रिटेन में बुनियादी कानून बने. सत्ता, राजा और संसद की साझीदारी में चलने की शुरुआत हुई. राजसत्ता का जनता से एक सामाजिक करार है. जनता कर देती है. इसलिए कि उसे सुरक्षा और बेहतर शासन मिले. इसलिए नहीं कि उसके कर से शासक भोग और भ्रष्टाचार करें .
झारखंड का हर दल या नेता एक-दूसरे को धोखा दे रहा है. खुदगर्जी के लिए. क्यों भाजपा सत्ता के लिए बेचैन थी? या तो उसे शुरू में ही झामुमो से समर्थन वापस लेने की घोषणा नहीं करनी चाहिए थी. अगर ले लिया, तो फिर यह नाटक क्यों? तीन सप्ताह से झारखंड सरकार होने या न होने की स्थिति में था. क्या भाजपाई सत्ता के बिना जिंदा नहीं रह सकते? अगर यह सच है, तो इन्हें दीनदयाल उपाध्याय, श्यामा प्रसाद मुखर्जी जैसों के नाम लेना बंद कर देना चाहिए.
झारखंड विधानसभा में विभिन्न दलों की जो संख्या है, उससे सरकार बनने के गणित साफ हैं. पहला समीकरण भाजपा +जेएमएम + आजसू को मिला कर है. 18+18+5 = 41. इस समीकरण से भाजपा अलग हो गयी है. अत: सरकार का गिरना साफ है. दूसरा समीकरण है- झामुमो, कांग्रेस, जेवीएम और आजसू मिलें. तब संख्या होगी 18+14+11+5= 48. बहुत मजबूत संख्या है. सरकार चलाने के लिए. पर जेवीएम शायद ही इस समीकरण में शामिल हो? क्योंकि बाबूलाल मरांडी की कमाई धुल जायेगी. झारखंड की इस राजनीतिक अस्थिरता के लाभुक या गेनर बाबूलाल मरांडी हैं. एक तीसरा समीकरण भी है. झामुमो+ कांग्रेस+ आजसू+ आरजेडी. ये सभी मिल कर 18+14+5+5= 42 होते हैं. अनेक निर्दलीय ताक में हैं. वे समर्थन दे देंगे. इसलिए यह समीकरण भी कारगर सिद्ध हो सकता है.
पर व्यावहारिक धरातल पर यह कठिन है. क्योंकि बिहार चुनाव के कारण कांग्रेस, राजद झारखंड में आसानी से साथ नहीं होंगे. लालू प्रसाद समर्थन की कीमत केंद्र में मांगेंगे. क्या कांग्रेस तैयार होगी? मधु कोड़ा के अनुभव के कारण कांग्रेस छांछ भी फूंक-फूंक कर पीयेगी. जेएमएम के मुख्यमंत्री को कांग्रेस या झाविमो शायद न मानें. झामुमो यह शर्त रखेगा कि गुरुजी इस्तीफा देंगे. पुन: नयी सरकार उनके नेतृत्व में चले. इस तरह गुरुजी को पुन: छह महीने बिना विधायक बने शासन करने का मौका मिलेगा.

हालांकि यह संवैधानिक परंपरा के खिलाफ होगा. पर यहां नैतिकता, कानून या परंपरा से क्या सरोकार? पर, कांग्रेस यह अपयश उठाने के लिए तैयार नहीं होगी, क्योंकि यह संविधान और लोकतंत्र से सीधे मजाक होगा. हां, यह समीकरण, अगर हेमंत सोरेन को नेता माने, तो शायद एक भिन्न शुरुआत हो सकती है. पर हेमंत के नाम पर झामुमो में ही विवाद शुरू होगा. कांग्रेस भी सहमत नहीं होगी. जो निर्दल इस समीकरण को समर्थन देंगे, वे बदले में गद्दी चाहेंगे. तब कांग्रेस फिर निर्दल लोगों का साथ लेकर अपना हाथ नहीं जलाना चाहेगी. कांग्रेस के बारे में जितनी अटकलें लगा लें, पर राहुल राज की कांग्रेस पाक-साफ बनना चाहती है, तो वह कतई इस तरह के सत्ता खेल में नहीं कूदेगी. न अंदर से, न बाहर से.

सरकार बनवाने-बिगाड़ने के खेल में बड़े-बड़े दलाल सक्रिय हैं. कोड़ा राज के दलाल भी पूंजी की गठरी लेकर मैदान में हैं. जहां, इस तरह राजनीतिक हालात हों, वहां कोई दल खड़ा होकर क्यों नहीं घोषित करता कि यह सब पाखंड चल रहा है. हमें नया चुनाव चाहिए. राममनोहर लोहिया कहा करते थे, रोटी को बार-बार तावा पर पलटिए, नहीं तो वह जल जायेगी. होने दीजिए बार-बार चुनाव. इस अराजकता, गतिरोध या सरकारहीनता की स्थिति से बेहतर है, चुनाव. यह भी कहा जाता है कि राज्यपाल शासन से बेहतर है, भ्रष्ट जनप्रतिनिधियों का शासन. पर आज किसी में साहस होना चाहिए यह कहने का कि यह झूठ है. हमारे अयोग्य दलों और लोभी प्रतिनिधियों ने ऐसे हालात बना दिये हैं कि लोग राजनीति से नफरत करने लगे हैं. यह स्थिति देश और झारखंड के लिए सबसे बदतर है.

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