-हरिवंश-
वहीं उसकी मौत हो गयी. सातो में वृक्षवर उपरांव का लड़का मरा है. कुल मिला कर 10 हजार से 15 हजार की जनसंख्या पाठ और तराई में इन बीमारियों से परेशान है. इन बीमारियों से हुई मौतों का समेकित विवरण किसी सरकारी अधिकारी या संस्थान के पास उपलब्ध नहीं है. लंगोटी से तन ढके किसी आदिवासी से आप पूछ भर ले कि वह आपको अपनी व्यथा सुना जायेगा. मुरमू उरांव जब मूकदर्शक के भाव में अपने गांव का दर्द सुनाने लगा, तो इस संवाददाता को किपलिंग की उक्ति याद आयी ‘काले गुलामों को सफेदपोश अंगरेज अपना बोझ मानते है’ क्या इस आजाद सरकार का सोच यह नहीं है?
ऐसा नहीं है कि भूखे मरते इन आदिवासियों के लिए सरकार को बिल्कुल फिक्र नहीं है. चंपा टोली के स्वास्थ्य उपकेंद्र है. ऐसे पांच स्वास्थ्य उपकेंद्र इस अंचल में है. प्रति स्वास्थ्य उपकेंद्र प्रतिवर्ष पांच हजार रुपये की दवा सरकार इन्हें मुफ्त वितरित करने के लिए मुहैया कराती है. यानी पांच स्वास्थ्य उपकेंद्रों पर प्रतिवर्ष कुल 25 हजार रुपये की दवाएं आती हैं. इन उपकेंद्रों पर पांच एमबीबीएस डॉक्टर तैनात हैं. कुल 60 स्टाफ हैं, यानी कुल तीन लाख से अधिक का व्यय महज स्टाफ, डॉक्टर और इन उपकेंद्रों के रख-रखाव पर होता है. 25 हजार रुपये की दवा बांटने के लिए जो फौज तैनात है.
उस पर तीन लाख रुपये प्रतिवर्ष व्यय हो रहे हैं. 21वीं सदी में जाने के लिए छलांग लगाने वाली सरकार भला कुशल प्रबंधन के युग में इससे बेहतर प्रबंध क्या कर सकती है? इन स्वास्थ्य उपकेंद्रों के जन स्वास्थ्य अधिकारी-कर्मचारी क्या कर रहे हैं? चपरासी से लेकर डॉक्टर तक प्राइवेट प्रैक्टिस में लगे हैं. जिन आदिवासियों के पास एक वक्त का भोजन नहीं है, उनसे मामूली उपचार के नाम पर 200-250 रुपये ठग लिए जाते हैं, दूसरी ओर अस्पताल की दवाएं बाहर धड़ल्ले से बिक रही है. इस बार बारिश न होने से जब बीमारियां बढ़ी, तो बिशुनपुर के विकास भारती ने इस मुद्दे को उठाया, इस इलाके में अशोक भगत के नेतृत्व में विकास भारती ने ईसाई मिशनरियों की तरह जो सराहनीय कार्य किया है, वह अनकही कथा है.
अशोक भगत कहते हैं कि ये बीमारियों तो कमोवेश प्रतिवर्ष होती हैं, लेकिन जन प्रतिनिधि भी इससे वाकिफ नहीं हैं. न ऐसे मुद्दे उठाते है, इस वर्ष सूखे के कारण प्रकोप गहरा है. विकास भारती द्वारा पहाड़ पर और नीचे 18 राहत केंद्र चलाये जा रहे हैं. इन केंद्रों पर चावल और दवा सबके बीच वितरित किया जा रहा है. इस अंचल में लगभग 15 फीसदी आदिवासी ऐसे है, जिनके पास 12 माह खाने का अन्न उपलब्ध है. तीस फीसदी लोगों के पास नौ माह का अन्न भंडार होता है. शेष लोगों के पास तीन माह से अधिक का संचय नहीं होता. इस कारण बड़े पैमाने पर मजदूरी के लिए पलायन होता है.
ऊपर बॉक्साइट के पहाड़ तोड़े जाने लगे. ट्रकों का न खत्म होने वाला सिलसिला लगा रहा. कभी भूले-भटके किसी ने रॉयल्टी का सवाल उठाया, तो उसे ठेकेदार पांच हजार देकर चुप करा देते. उससे कागज लिखवाकर, जिला खनन अधिकारी को नजराना देकर उससे मुहर लगवाकर, उपायुक्त कार्यालय से सहमति प्राप्त कर निजी ठेकेदार बॉक्साइट के पत्थर की तिजारत से मालामाल होते रहे. उधर पहाड़ पर बसनेवाली मूल असुर जाति इन शहरी बाबुओं को देख जंगल में भागती गयी. शहरी मनुष्य के पांव के निशान देखकर ये भागते हैं.