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विधायिका ही राह दिखा सकती है

-हरिवंश- झारखंड बने दस वर्ष हुए. पर यह राज्य अपनी बेहतर पहचान के लिए आज भी भटक रहा है. दस वर्षों पूर्व (वर्ष 2000 में) तीन राज्य, देश में एक साथ बने थे. झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल. विशेषज्ञों का आकलन है कि उनमें सबसे बदतर हाल में झारखंड है. विस्तार में गये बगैर, झारखंड की […]

-हरिवंश-

झारखंड बने दस वर्ष हुए. पर यह राज्य अपनी बेहतर पहचान के लिए आज भी भटक रहा है. दस वर्षों पूर्व (वर्ष 2000 में) तीन राज्य, देश में एक साथ बने थे. झारखंड, छत्तीसगढ़ और उत्तरांचल. विशेषज्ञों का आकलन है कि उनमें सबसे बदतर हाल में झारखंड है. विस्तार में गये बगैर, झारखंड की इस स्थिति को सब स्वीकार करते हैं. इसके कारण अनंत हो सकते हैं. पर प्रमुख कारण माना जाता है, राजनीतिक अस्थिरता. सरकारों का आना-जाना.

पर इससे भी महत्वपूर्ण कारण है, विधानसभा की भूमिका.लोकतंत्र में आस्था का मंदिर है, यह लोक अदालत. यानी विधायिका. विधायिका ही लोकतंत्र की घटती साख को बचा सकती है. प्रशासन से लेकर राज्य के हालात पर गहरी चिंता, बहस और सक्रिय भूमिका से, सरकार और व्यवस्था पर प्रभावी नियंत्रण रख सकती है. पर इस कसौटी पर झारखंड विधानसभा की क्या भूमिका रही? क्या वह आदर्श विधानसभा बन पायी? जरूरत है कि आज हर विधायक, दल के स्तर से ऊपर उठ कर यह सवाल (10 वर्ष होने के अवसर पर) अपनी अंतरात्मा से करे. दस वर्ष पूरे होने के अवसर पर विशेष सत्र बुलाकर यह विशेष बहस हो कि झारखंड पीछे क्यों छूटा? यह बहस निजी स्वार्थों और दलगत भावना से ऊपर उठ कर हो. इस बहस के लिए या आत्म मूल्यांकन के लिए यही संस्था सबसे प्रामाणिक, वैधानिक और उपयुक्त है.

बहस की शुरुआत खुद अपनी भूमिका की तलाश से हो? साल में कितने दिनों, विधानसभा बैठती है? संवैधानिक अपेक्षाओं के अनुसार विधानसभा की कितनी बैठकें होनी चाहिए? अगर बैठकें कम हो रही हैं, तो समाधान ढूंढें जायें? फिर इन बैठकों में विधायकों के आचरण, भूमिका और स्तर पर विचार-विमर्श हो? बहस का स्तर क्या रहा है? यह कैसे बेहतर और आदर्श बन सकता है? इस पर अमल हो. यह भी सवाल उठे कि विधानसभा में कितनी नियुक्तियां होनी चाहिए थीं, कितनी हुईं? क्या योग्य पात्र चुने गये? क्यों और कैसे नियुक्तियों के मामले में विधानसभा विवाद में है? यह चीर हरण जैसा प्रसंग है.

लोकतंत्र के मंदिर, विधानसभा की नैतिक आभा में जितनी चमक, साख और शुद्धता होगी, राज्य पर उसका नियंत्रण उतना ही मजबूत होगा. दस वर्षों के झारखंड विधानसभा में बार-बार वेतन और सुविधाएं बढे. विधानसभा को बहस करनी चाहिए कि देश में किन राज्यों के विधायक, सबसे अधिक वेतन-सुविधाएं पाते हैं? उन राज्यों की प्रतिव्यक्ति आमद क्या है? झारखंड सबसे समृद्ध राज्य बने, तो यहां के विधायक सबसे समृद्ध बनें, इसमें कोई मतभेद नहीं हो सकता.

पर क्यों सबसे गरीब राज्य के विधायक, सबसे अमीर बनें, यह आत्ममंथन होना चाहिए. यही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्रियों को आजीवन सुविधाओं का प्रावधान क्यों? क्यों पहल हुई थी कि स्पीकर को भी आजीवन सुविधाएं मिले? राज्य में झारखंड लोक सेवा आयोग से लेकर अनेक महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थाओं में जो असंवैधानिक चीजें हो रही थीं, तब विधानसभा क्यों मूकदर्शक रही?

आज सबसे बड़ी जरूरत है, झारखंड विधानसभा की साख लौटाना. उसे एक जीवंत, प्रामाणिक और पारदर्शी संस्था बनाना. क्योंकि लोकतंत्र में विधानसभा या विधायिका ही गंगोत्री है.

वह नैतिक, आदर्श और कानून प्रिय होगी, तो सरकार समेत राज्य का हर विभाग, संस्थाएं और समाज, लक्ष्मण रेखा के अंदर होंगे. महाभारत की मान्यता है, महाजनो ये न गता: सो पंथा:. बड़े लोग, जिस रास्ते जाते हैं, सामान्य लोग उन्हें ही अनुसरण करते हैं. विधायक ही समाज के अगुआ और बड़े लोग हैं. उनके गढ़े मूल्य, मर्यादा, आचरण और चरित्र से ही समाज सीखेगा. सार्वजनिक जीवन का स्तर या गुणवत्ता बेहतर होगा. गंगोत्री, यानी गंगा अपने उद्गम में ही स्वच्छ, साफ और श्रेष्ठ नहीं रहेगी, तो उनकी कितनी सफाई होगी? कहां-कहां होगी? इस तरह राज्य में श्रेष्ठ मूल्यों की गंगोत्री है, विधायिका (विधानसभा). इसे साफ-स्वच्छ और आदर्श विधायक ही बना सकते हैं.

विधायिका के पास असीमित ताकत है. वह जहां बदलाव या परिवर्तन चाहती है, कानून बनाकर पहल कर सकती है. बिहार में दो प्रभावी कानून बने हैं, जो लोकतंत्र के लिए उपयोगी और ऊर्जावान हैं. पहला कानून भ्रष्टाचार पर नियंत्रण से संबंधित, दूसरा अपराध पर नियंत्रण के लिए विशेष अदालतों के गठन का. झारखंड विधानसभा भी ऐसे या अपनी परिस्थितियों के अनुकूल और आवश्यकतानुसार कानून बनाकर हालात बदल सकती है. चुनावतंत्र लगातार महंगा होता जा रहा है. प्रजातंत्र में धनतंत्र के बढ़ते असर को रोकने या नियंत्रित करने की पहल तो विधानसभा ही कर सकती है.
मीडिया समेत अन्य संस्थाएं महज आलोचना कर सकती हैं. कई बार यह कहा जाता है कि समाज की सभी संस्थाओं में पतन हो गया है. यह सही भी है. मीडिया समेत कोई संस्था बची नहीं, जो पाक साफ हो. पर इस हालात को बदलने की ताकत सिर्फ और सिर्फ विधायिका के पास है. इसलिए लोकतंत्र में विधायिका से सबसे अधिक अपेक्षा है. अंतत: राजनीति ही चीजों को बदल सकती है. नयी दिशा दे सकती है. दशा बदल सकती है. उस राजनीतिक बदलाव की भूमिका चाहें तो विधायक ही तैयार कर सकते हैं.
आजादी के 50 वर्ष पूरे हुए, तो संसद का एक सप्ताह का अधिवेशन बुलाया गया. यह परखने के लिए कि हम कहां पहुंचे? उसी तरह 10 वर्ष पूरे होने पर झारखंड विधानसभा क्यों नहीं बैठ सकती और झारखंड के हालात पर नये सिरे से विचार कर सकती है? अगर विधानसभा या विधायिका फेल हुई, तो लोकतंत्र फेल होगा. लोकतंत्र फेल होगा तो अराजकता और नक्सली ही दिखायी देते हैं. गांधी जी ने पार्लियामेंट के बारे में एक शब्द कहा. एक महिला ने उस पर आपत्ति की. गांधी जी ने उसे वापस ले लिया. उसके बाद गांधी जी ने पार्लियामेंट को बांझ कहा.
आजादी के 50 वर्ष पूरे होने पर संसद का एक सप्ताहव्यापी अधिवेशन बुलाया गया. तब समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने एक लेख लिखा, संसद भवन को जला दो (देखें पुस्तक, भारतीय राजनीति पर एक दृष्टि..गतिरोध, संभावना और चुनौतियां, लेखक : किशन पटनायक). इस लेख में उन्होंने गांधी जी के उस प्रसंग के बारे में लिखा है, गांधीजी ने पार्लियामेंट को बांझ कहा. यह भी आपत्तिजनक होना चाहिए था, क्योंकि नारी के लिए निंदात्मक शब्द के रूप में इसका इस्तेमाल होता रहा है. गांधी ने कभी किसी नारी को बांझ नहीं कहा. उलटे, गांधी ने कभी-कभी नारियों को बांझ होने का उपदेश दिया है. फिर भी उन्होंने पार्लियामेंट को बांझ कहा क्योंकि उन्हें पूरे आक्रोश के साथ इस गौरवान्वित संस्था (ब्रिटिश पार्लियामेंट) का उपहास करना था.
नक्सलियों ने संसदीय संस्थाओं के बारे में कैसे शब्दों का इस्तेमाल किया है? अंतत: जो सबसे प्रतिष्ठित और लोकतंत्र की प्राणसंस्था है, अगर वह जीवंत और निर्णायक नहीं हुई, उसने देश, काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपनी भूमिका का निर्वाह नहीं किया, तो समाज को दिशा देनेवाली कोई संस्था नहीं बचेगी? झारखंड विधानसभा अपनी इस ऐतिहासिक भूमिका को समझे और निर्णायक कदम उठाये तो निश्चय ही झारखंड देश के श्रेष्ठ राज्यों में से एक हो सकता है.

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