-हरिवंश-
शायद पररो गांव के सुगन राम ने कहा था- ‘हुजूर ! साहब कह गेलन कि पानी के मैनेजमेंट होबे.’ पानी संकट देख कर कोई अफसर दिलासा दे गया होगा, पर आश्चर्य हुआ पहाड़ के पिछड़े गांव के हाशिये पर जी रहे इंसान से ‘मैनेजमेंट’ शब्द सुन कर. हिंदुस्तान की नयी राजनीति के नये फिकरे. प्रयोग होने वाले शब्द बहुत कुछ कहते हैं, अभिप्राय, सोच और संस्कृति की झलक मिलती है. हिंदुस्तान की राजनीति में ‘मैनेज करना’, ‘मैनिपुलेटर’, ऑपरेटर, ब्रोकर जैसे शब्द पहले इस्तेमाल नहीं होते थे. अब तो इन्हीं शब्दों की बहुतायत है. और, ये शब्द! पूरी भारतीय राजनीति का वह चेहरा स्पष्ट करते है, जिसे लोग समझ नहीं पा रहे.
अमेरिकी संस्कृति-जीवन दर्शन से कॉरपोरेट कल्चर पहले उद्योग जगत में आया. अब अमेरिकी मीडिया भी प्रभु वर्ग की बातों-स्वार्थों को उछाल कर ‘कॉरपोरेट मीडिया’ की भूमिका का निर्वाह कर रही है. उसी रास्ते भारतीय उद्योग में कॉरपोरेट कल्चर आया. लब्बोलुबाव इस संस्कृति का अभिप्राय है ‘येन केन प्रकारेण’ सफलता. नैतिकता, मानवीय संवेदना, ममता, स्रेह और उदात्त मानवीय भावों के ठीक विपरीत क्रूर, अनैतिक, अमानवीय, संवेदनशील धरातल पर अर्जित सफलता ही इस कॉरपोरेट कल्चर में सर्वोपरि है. सर्वश्रेष्ठ है. इस संस्कृति के तहत इसी आकांक्षा, भूख और उद्देश्य से प्रेरित-संचालित है इंसान. लाभ और दूसरे का कद छोटा कर ऊपर बढ़ने की ख्वाहिश, आज भारतीय राजनीति इसी कॉरपोरेट कल्चर से प्रेरित है.
इस राजनीति के तहत नेता अब ‘मास लीडर’ नहीं बनते. ‘मास को मैनेज’ करते है. कुछ ही महीनों पूर्व कर्णाटक के बंगरप्पा ने अपने समर्थन में 20-25 लाख लोगों की रैली की थी. फिर वह मुख्यमंत्री पद से हटा दिये गये. अब उनका कोई नामलेवा नहीं. जिस नेता के पीछे 20-25 लाख लोग हों, वह जननायक राजनीति की धारा बदल सकता है, पर ये ‘20-25 लाख लोग’ धन-बल से मैनेज किये गये थे. बंगरप्पा को मुख्यमंत्री बनाये रखने की साजिश के तहत पैसे से जुटायी गयी भीड़. ऐसे असंख्य उदाहरण हैं. आजकल राजनीति में भीड़ ‘मैनेज’ कर राजनीतिक पद-सत्ता हथियाने की होड़ है. इस स्पर्द्धा के केंद्र में मनुष्य नहीं पैसा, पद और सफलता है. इस कारण इस राजनीति में मानवीय मुद्दे अब अप्रासंगिक बन गये हैं. भूख, प्यास, हत्या, बलात्कार, अपराध से जुड़े सवाल इस ‘कॉरपोरेट राजनीति’ में नहीं उठा सकते.
राजीव गांधी ने पहली बार कांग्रेस के बंबई अधिवेशन (1986) में राजनीतिक दलालों को चिह्नित किया था. इस दलालों की राजनीति में करूणा और संवेदना के लिए ठौर नहीं है. और इसी राजनीति की गिरफ्त में है ‘पलामू’ महुआ टांड़, पलामू का बड़ा ब्लॉक है. 14 मौजा, नौ पंचायत, पर पूरे ब्लॉक में बिजली आज तक नहीं पहुंची है. 1967 से नेता आश्वासन दे रहे हैं. भाजपा के यमुना सिंह 1967 से ही इस अंचल के विधायक हैं, पर कभी-कभार ‘राजनीति ऑपरेट’ करने और ‘वोट मैनेज’ करने के लिए ही इधर पधारते हैं. सिंचाई साधन नहीं है. रोजगार नहीं है. सूखा है, पर कोई सरकारी योजना नहीं है और इन मानवीय समस्याओं-सवालों के जवाब देने के लिए कोई नहीं है. दायित्व लेने-स्वीकारने को कोई तैयार नहीं है. और भूख-प्यास से बेचैन लोग भी अपने तकदीर का फैसला करने के लिए तैयार नहीं है.
इस पूरे नकार के प्रति कोई अनास्था नहीं है. यह सवाल डॉक्टर लोहिया ने छेड़ा था कि 800 वर्षों से गुलाम रहनेवाले लोग क्यों अपने अधिकारों के लिए तन कर खड़ा नहीं हो पाते ? मरने के कगार पर हैं, शरीर पर मक्खियां भिन्ना रही है, फिर भी जीवन के प्रति गहरी ललक-ममत्व है. विरोध में उठ खड़ा होने की इच्छा नहीं. इच्छाहीन लोगों की जमात अपना तकदीर नहीं बदला करती. 1967 में सर्वोदय और दूसरे दलों के लोगों ने पलामू में काफी सघन काम किया था, फिर भी अनास्था का अभाव है.
अनास्था के इस माहौल में जो अछूते, पर प्रासंगिक सवालों को उठा रहे है, उनमें एक है अशोक भगत, विशुनपुर में ‘विकास भारती’ के माध्यम से अशोक जी कभी विद्यार्थी परिषद के बड़े नेता हुआ करते थे. उत्तर प्रदेश में उनके अनुयायी आज सांसद है. मंत्री थे, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी उनका संबंध रहा. पर आज सृजन के जिस काम में वह तन-मन से लगे है, वह असाधारण है. सत्ता की राजनीति से स्वत: अलग होकर ग्रामोत्थान के प्रति प्रतिबद्ध , उन्होंने भी सूखे से निबटने के लिए समिति बनायी है.
लातेहार के नरेशगढ़ में उनका काम देख रहे है, राम संजीवन, गारू प्रखंड के पीरी गांव में दयाली सिंह, गारू प्रखंड के ही दल दलिया गांव के राम हरी उरांव और कुजानपाठ के लालदेव असुर इन लोगों को अशोक भगत ने 5-5 बोरा चावल भिजवाया है. समिति के प्रभारी लोगों को दायित्व सौंपा है कि उनके इलाके में कोई भूख से मौत न हो. अशक्त गरीब और असहाय को ही राशन की मदद वे पहुंचा रहे है. सीमित साधन के बावजूद साहस है, मानवीय आपदा से जुझने के लिए रतौंधी, दस्त, पेचिश और मलेरिया की दवाएं भी भिजवायी है. घाघरा प्रखंड में ही गांव है, बुरजू जामगाई . ईंचा पंचायत है सुमति उरांव का गांव. वहां से तीन आइएएस अफसर है टीपी भगत-नरेंद्र भगत भी वहीं के हैं. आजाद भारत के नये जमींदार, तो अफसर और नेता ही हैं, फिर भी उस गांव में न शिक्षा का प्रबंध है और न पानी का.
बगल के सांतों गांव में सूखे का असर नहीं पड़ा है. कारण, विकास भारती ने पहाड़ से आनेवाले प्राकृतिक नाले के बेकार बहते पानी को पांच वर्षों पूर्व बांध दिया. 500 एकड़ की सिंचाई हो रही है, उस चेक डैम से सांतों गांव में सूखे का असर नहीं है, पर पास के 20 गांव सूखे से प्रभावित है, खासतौर से चंपा टोली, लोंगा, हेलता, डीपाडीह, तेंदार, देवरागानी, भंवरगानी, बलातू पाठ, जेहन गुटुवा पर सरकार तो बड़ी-बड़ी परियोजनाएं बनाती है, चेक डैम उसकी सूची में नहीं है.पीरी गांव के दयाली सिंह कहते है- धान-चैती नहीं हुई. पूर्वज कहते है- ‘अकाल साल में ही बैर फलता है’, सो इस बार बैर बहुत फले भी है.