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Independence Day 2022:स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम नायक हैं तिलका मांझी, कहानी पढ़कर आंखे डबडबा जाएगी आपकी

Independence Day 2022: 1857 की क्रांति से लगभग 80 साल पहले बिहार के जंगलों से अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ़ जंग छिड़ चुकी थी. इस जंग की चिंगारी फूंकी थी एक आदिवासी नायक, तिलका मांझी ने, जो असल मायनों में भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के पहले क्रांतिकारी थे.

बैरकपुर में 1857 को मंगल पांडे की उठी हुंकार देशभर में क्रांति की आग की तरह फैल गई थी. 1857 को अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ पहला विद्रोह कहा जाता है. इतिहास की कई किताबों में ये फ़र्स्ट रिवॉल्ट ऑफ़ इन्डिपेंडेंस के नाम से दर्ज है. लेकिन इससे पहले भी देश के अलग-अलग हिस्सों में क्रांति की ज्वालायें भड़की थी और कई आज़ादी के मतवालों ने विद्रोह का बिगुल बजाया था. हालांकि दुख की बात यह है कि इनके बारे में हमें बहुत कम जानकारी है. ऐसे ही एक वीर सपूत थे भागलपुर के तिलका मांझी.

कौन थे तिलका मांझी?

तिलक मांझी बिहार की धरती पर पैदा हुये, माना जाता है कि उनकी जन्मतिथि 11 फरवरी 1750 को थी. जन्म के बाद वे ‘जबरा पहाड़िया’ हुये. वे संथाल थे या पहाड़िया, इतिहासकारों में इस बात पर मतभेद है. उस दौर के ब्रिटिश रिकॉर्ड्स पलटने पर उनका नाम ‘जबरा पहाड़िया’ ही मिलता है. कई इतिहासकार तिलका मांझी को प्रथम स्वतंत्रता सेनानी मानते हैं. तिलका मांझी के जीवन पर महाश्वेता देवी ने बांग्ला भाषा में ‘शालगिरार डाके’ और राकेश कुमार सिंह ने हिंदी में ‘हुल पहाड़िया’ लिखा है.

क्या है ‘तिलका’ का मतलब

पहाड़िया में ‘तिलका’ का मतलब है, ऐसा व्यक्ति जो ग़ुस्सैल हो और जिसकी आंखें लाल-लाल हों. तिलका मांझी का स्वभाव इतना गर्मजोशी भरा था कि उनका नाम तिलका पड़ गया था. Live History India नामक किताब के अनुसार ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी वाले उन्हें इसी नाम से बुलाने लगे थे. ‘जबरा पहाड़िया’ आगे चलकर गांव का प्रधान बन गया. उनके समुदाय में ग्राम प्रधान को ‘मांझी’ बुलाते थे. इस तरह ‘जबरा पहाड़िया’ का नाम तिलका मांझी बन गया.

जंगल के प्रति प्यार ने बना दिया आंदोलनकारी

तिलका मांझी ने बचपन से ही प्रकृति को अंग्रेज़ों द्वारा कुचले जाते देखा था. अंग्रेज़ों द्वारा उसके लोगों पर किये जाने वाले अत्याचार देख कर ही वे बड़ा हुए थे. पहले से ही दिल के किसी कोने में छिपी स्वतंत्रता की आग को ग़रीबों की ज़मीन, खेत, खेती आदि पर अंग्रेज़ों के अवैध कब्ज़े ने हवा दी. इस प्रकार तिलका मांझी ने अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया.

बंगाल की जमींदारी प्रथा

सन 1707 में औरंगजेब की मौत के बाद बंगाल मुगलों के हाथ से छूटकर एक सूबा या प्रोविंस बन गया. यहां ज़मीन की क़ीमत वसूल करने के लिये जागीरदार और ज़मीनदार बैठा दिये गये थे. ये ज़मीनदार ग़रीबों, आदिवासियों का शोषण करते. अंग्रेज़ों ने ज़मीनदारी प्रथा ख़त्म तो की लेकिन उनकी गद्दी पर गोरे साहब बैठ गये. अंग्रेज़ों ने भी आदिवासियों का शोषण किया था.

आदिवासियों ने किया विद्रोह

सन 1750 में अंग्रेज़ों ने नवाब सिराजउद्दौला से जंगल महल क्षेत्र हथिया लिया था. 1765 तक कंपनी ने संथाल परगना, छोटानागपुर पर भी कब्ज़ा कर लिया था. अंग्रेज़ बिहार और बंगाल के आदिवासियों से भारी कर वसूलने लगे थे और आदिवासियों के पास महाजनों से सहायता मांगने पर मजबूर हो गये. अंग्रेज़ और महाजन आपस में मिले होते और महाजन धोखे से उधार चुकाने में असमर्थ आदिवासियों की ज़मीन हड़प लेते. तिलका मांझी का बचपन, युवावस्था ये सब देखते हुये बीता था.

तिलका मांझी ने लोगों को किया जामा

सन 1770 आते-आते तिलका मांझी ने अंग्रेज़ों से लोहा लेने की पूरी तैयारी कर ली थी. वो लोगों को अंग्रेज़ों के आगे सिर न झुकाने के लिये प्रेरित करते थे. उनके भाषण में जात-पात की बेड़ियों से निकल कर, अंग्रेज़ों से अपना हक़ छीनने जैसी बातें होती थी.

भीषण सूखा के बाद भी अंग्रेजों ने टैक्स को किया था दोगुना

सन 1770 में ही बंगाल में भीषण सूखा पड़ा था. संथाल परगना पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ा. आदिवासियों को लगा कि टैक्स कम किया जायेगा लेकिन कंपनी सरकार ने टैक्स दोगुना कर दिया और जबरन वसूली भी शुरु कर दी. कंपनी अपना खज़ाना भर्ती रही और लोगों की मदद नहीं की. लाखों लोग भूख की भेंट चढ़ गये थे.

जब तिलका मांझी ने लूटा खज़ाना

अंग्रेज़ों के खिलाफ लोगों की नफ़रत बढ़ रही थी. तिलका मांझी ने भागलपुर में रखा अंग्रेजों के खजाने को लूट लिया और टैक्स और सूखे की मार झेल रहे ग़रीबों और आदिवासियों में तिलका मांझी ने लूटे हुये पैसे बांट दिए. इसके बाद वे लोगों में वो रॉबिन हूड जैसे ही मशहूर हो गये थे. भूख से बिलखते कई लोग उन्हें भगवान तिलका मांझी तक बुलाने लगे थे.

Warren Hastings ने तिलका को पकड़ने के लिए भेजी फौज

तिलका मांझी ने अपने कुछ साथियों के साथ सन 1778 में रामगढ़ कैंटोनमेंट (अभी झारखंड में) में तैनात पंजाब रेजिमेंट पर हमला कर दिया था. आदिवासियों की सेना इतने जोश में थी की सामने से कंपनी सरकार की बंदूकें नहीं चल पाईं थी. अंग्रेज़ों को कैन्टोनमेंट छोड़ कर भागना पड़ा था.

धूर्त अंग्रेज़ Cleveland को किया गया तैनात

सन 1770 व 1778 के कांड के बाद तिलका मांझी अंग्रेज सरकार की आंखों में किल की तरह चुभने लगे थे. अंग्रेजों को अपनी बेइज्जती का बदला लेना था. तिलका मांझी और अन्य आदिवासियों से निपटने ने के लिये कंपनी सरकार ने August Cleveland को मुंगेर, भागलपुर और राजमहल ज़िलो का कलेक्टर ऑफ़ रेवेन्यू बनाकर भेजा. Cleveland ने संथालियों से बात-चीत करने के लिये संथाली सीखी. बताया जाता है कि 40 आदिवासी समुदायों ने Cleveland की सत्ता स्वीकार की. Cleveland आदिवासियों को टैक्स में छूट, नैकरी जैसे लुभावने प्रस्ताव देता. Cleveland ने आदिवासियों की एकता तोड़ने के लिये उन्हें बतौर सिपाही रखना भी शुरु कर दिया था. कुछ इतिहासकार मानते हैं कि अंग्रेजों ने तिलका मांझी को भी नौकरी का प्रस्ताव दिया था. लेकिन तिलका अंग्रेज़ों की असली चाल समझ गये और उन्होंने कोई भी प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया था.

साल के पत्तों पर भेजे संदेश

तिलका ने अन्य आदिवासी समुदायों को एकजुट करने की कोशिश की. उन्होंने साल के पत्ते पर संदेश लिखकर अन्य समुदायों को प्रमुख को भेजा. मिट्टी की पुकार को अनसुना करना मुश्किल है. अपनी माटी की रक्षा के लिये कई लोग आगे आये और तिलका मांझी को बहुत से प्रमुखों का समर्थन मिला. तिलका मांझी ने 1784 में अंग्रेज़ों के भागलपुर मुख्यालय पर हमला कर दिया था. इस दौरान तिलका ने अपने धुनष से एक ज़हरीली तीर छोड़ी और वो Cleveland को जा लगी. घायल अवस्था में Cleveland की मौत हो गई थी. यह घटना अंग्रजों के गाल पर जोरदार तमाचा के जैसे थी. कंपनी सरकार ने हर हाल में तिलका मांझी को जिंदा या मुर्दा पकड़ने के लिए General Eyre Coote को भेजा.

घर के भेदी ने अंग्रेजों को दी थी तिलका की खबर

कहा जाता है कि किसी घर के भेदी ने तिलका मांझी का पता अंग्रेज़ों को बता दिया था. अंग्रेज़ों ने बीच रात में तिलका मांझी और अन्य आदिवासियों पर हमला किया. तिलका जैसे-तैसे बच गये थे लेकिन उनके कई कॉमरेड शहीद हो गये थे. अंग्रेजों से बच कर तिलका मांझी अपने गृह जिले भागलपुर के सुलतानगंज के जंगलों में जा छिपे. यहां से उन्होंने अंग्रेज़ों के खिलाफ गुरैल्ला युद्ध छेड़ दिया. अंग्रेज़ तिलका मांझी तक पहुंचने वाले हर सप्लाई रूट को बंद करने में कामयाब हो गये. तिलका और उनके सैनिकों को अंग्रेज़ों से आमने-सामने लड़ना पड़ा. इतिहासकारों की मानें तो 12 जनवरी, 1785 के दिन तिलका मांझी को अंग्रेज़ों ने पकड़ लिया था. अंग्रेज तिलका मांझी को घोड़ों से बांधकर सुलतानगंज से भागलपुर तक घसीटते हुए ले गए थे. इतनी यातना सहने के बाद भी तिलका मांझी का हौसला पस्त नहीं हुआ था. वे अब भी जीवित थे. इसके बाद अंग्रेजों ने 13 जनवरी 1785 को 35 वर्ष की आयु में भागलपुर में फांसी दी थी.

इतिहास के पन्नों में गुम हुए तिलका मांझी

वीरता की अनोखी इतिहास रचने के बाद भी तिलका मांझी को इतिहास के पन्नों में उस तरह का स्थान नहीं मिल पया. जितने के तिलका हकदार थे. हालाकि इतिहास के पन्नों से तिलका मांझी भले गुम हो, लेकिन आदिवासी समाज समेत पूरे बिहार-झारखंड के लोग उन्हें भगवान तिलका मांझी कहकर संबोधित करते हैं. आदिवासी समुदाय में उन पर कहानियां कही जाती हैं, संथाल उन पर गीत गाते हैं. इन सब के बीच 1991 में बिहार सरकार ने भागलपुर यूनिवर्सिटी का नाम बदलकर तिलका मांझी यूनिवर्सिटी रखा और उन्हें उचित सम्मान दिया. इसके साथ ही जहां उन्हें फांसी हुई थी उस स्थान पर एक स्मारक बनाया गया है.

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