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लकड़ी के फर्नीचर पर भारी पड़ रहे फाइबर के सामान

सुपौल : ग्रामीण क्षेत्रों में शीशम, सखुआ व कटहल की लकड़ी का अभाव हो जाने से बढ़ई के समक्ष रोजगार की समस्या उत्पन्न हो गयी है. दो दशक पहले तक पर्याप्त मात्रा में लकड़ी उपलब्ध हो जाती थी. लेकिन पेड़ों में रोग लग जाने के कारण नये-पुराने अधिकांश पेड़ सुख गये हैं. पहले जलावन के […]

सुपौल : ग्रामीण क्षेत्रों में शीशम, सखुआ व कटहल की लकड़ी का अभाव हो जाने से बढ़ई के समक्ष रोजगार की समस्या उत्पन्न हो गयी है. दो दशक पहले तक पर्याप्त मात्रा में लकड़ी उपलब्ध हो जाती थी.

लेकिन पेड़ों में रोग लग जाने के कारण नये-पुराने अधिकांश पेड़ सुख गये हैं. पहले जलावन के रूप में जलेबी, पाखर, आम आदि की लकड़ियों का प्रयोग होता था. लेकिन आलम यह है कि अब इससे फर्नीचर बनाया जाने लगा है. कम गुणवत्ता के कारण इन लकड़ियों से बने फर्नीचर सस्ता होने के बावजूद बिक्री कम होती है. क्योंकि उसकी जगह प्लास्टिक की फर्नीचर का प्रचलन बढ़ने लगा है. परिवार के भरण-पोषण के लिये काम नहीं मिल पाने के कारण अब बढ़ई समुदाय के लोग पलायन करने को मजबूर हैं. वही बढ़िया लकड़ी उपलब्ध नहीं होने के कारण प्लास्टिक, फाइबर और मेटल के फर्नीचरों ने जगह ले ली है.

शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में सजती है दुकानें : जिले के बढ़ई समुदाय के लोग फुरसत के समय में लकड़ी के विभिन्न प्रकार के फर्नीचर तथा अन्य सामग्री बना कर मेला में दुकान लगा कर बिक्री करते हैं. जिसमें उखल, समाठ, पीड़िया, बेलना, चौकी सहित कुरसी, टेबुल, अलमीरा, पलंग, बेंच आदि शामिल हैं. किसी समय में इन सामग्रियों की मांग काफी अधिक थी और बिक्री भी खूब होती थी. लेकिन वक्त के बदलते दौर में अब लकड़ी से बने सामान गरीब और गरीबी के बजाय रईस और शौकिया लोगों की पहचान बन चुके हैं.
क्या कहते हैं कामगार : सुपौल मेला रोड स्थित नंदेलाल शर्मा एवं दिनेश शर्मा कहते हैं कि फर्नीचर की दुकानदारी से अब मुश्किल से पेट भरता है. बच्चों की पढ़ाई और परिवार चलाने के लिये चाह कर भी रुपये जाम नहीं कर पाते हैं. ग्राहकों की संख्या घटने से सालों भर काम भी नहीं मिलता है.

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