नेता व अधिकारी का नाम सुन भड़क उठते हैं 1992 के दंगा पीड़ित, नहीं बदली लीची बगान के पीड़ितों की जीवनशैली
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25 साल बाद भी सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं
नेता व अधिकारी का नाम सुन भड़क उठते हैं 1992 के दंगा पीड़ित, नहीं बदली लीची बगान के पीड़ितों की जीवनशैली सीतामढ़ी : शासन बदला, सत्ता बदली और बदले अधिकारी, पर नही बदली लीची बगान के दंगा पीडि़तों की जीवनशैली. यह सच्चाई शहर से 5 किमी की दूरी पर स्थित लीची बगान के लोगों की […]
सीतामढ़ी : शासन बदला, सत्ता बदली और बदले अधिकारी, पर नही बदली लीची बगान के दंगा पीडि़तों की जीवनशैली. यह सच्चाई शहर से 5 किमी की दूरी पर स्थित लीची बगान के लोगों की जीवनशैली को देख कर सीधे तौर पर कहा जा सकता है. जो आज भी उसी स्थान पर खड़े है, जहां 25 साल पहले खड़े थे. उनके जीवनशैली को देख कर ऐसा लगा रहा था, जैसे आधुनिक युग में प्रवेश करने के बाद भी वे आदम युग में जी रहे हो. नेता व राजनेता का नाम सुन कर भड़क जाते है. अपनी व्यथा बता-बता कर थक चुके अब मीडिया को भी अपना दर्द बताने से परहेज करते है.
हर आंख में उदासी व भविष्य की चिंता दिखायी देती है. सलीका का कपड़ा पहन कर स्कूल जाने वाले बच्चों को देख कर लीची बगान के बच्चों की आंखों में कई सवाल दिखायी देते है. उनकी आंखों को देख कर महसूस होता है कि शायद उनके मन में यह ख्याल उत्पन्न हो रहा है कि यह फर्क क्यो? ऐसा नही कि अपने मासूम बच्चों की पीड़ा को मां-बाप नही समझ रहे, लेकिन करे तो क्या? सब कुछ तो 1992 के दंगा में समाप्त हो गया. आज भी यहां के निवासियों के दिल से खौफ समाप्त नही हुआ है. यही कारण है कि 25 साल बाद भी वे अपने घर नही लौटे है.
44 लोगों की हुई थी मौत. सन 1992 में शहर में उपजा विवाद कुछ ही देर में पूरे जिले में फैल गयी थी. मीडिया में आयी खबर के अनुसार दंगा में दोनों समुदाय मिला कर 44 लोगों की मौत हो गयी थी. मरने वालों में सबसे अधिक संख्या रीगा प्रखंड के मझौरा व चंडिहा गांव के लोगों की बतायी जाती है. इस दंगे में अपना सब कुुछ लूटा चुके सैकड़ों लोग आज भी नारकीय जीवन जीने को मजबूर हैं. सरकारी उपेक्षा और जनप्रतिनिधियों की बेरुखी ने उनके जीवन को और बद से बदतर बना दिया है. दंगे के 25 सालों बाद भी लोगों को मुआवजा ठीक से नहीं मिला. मुआवजे के नाम पर सिर्फ खानापूर्ति हुई थी. राजनीतिक पार्टियों के प्रतिनिधि अपने वादे पर आज तक खड़ा नही उतर सके.
बच्चों के हाथ में किताब न रोजगार . येन-केन-प्रकारेण अपनी जिंदगी की गाड़ी खींच रहे दंगा पीडितों का शरणस्थली बना डुमरा प्रखंड के भूप भैरो पंचायत का लीची बगान आज भी बुनियादी सुविधाओं से महरूम है. सरकार की ओर से इलाके में शिक्षा, बिजली, सड़क और पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है. यहां के पुरुष रोजगार की तलाश में आज भी भटक रहे है. दंगे का दंश झेल चुके बच्चे अब जवान हो चुके है, मगर उनके हाथों में न किताब है और न ही रोजगार. विकास से कोसों दूर इस इलाके के लोगों की उम्मीद मानों खत्म हो चुकी है.
इसलिए हुकूमत से विरासत में मिले अंधेरा को वह अपना तकदीर समझ चुके है.
बीमारी एक, दवा अलग-अलग क्यों?. यहां के दंगा पीडि़त मो नूरआलम, मो अजरूल, शहाबुृदीन, मुनीफ, मो जहीर और सर्फूदीन मंसूरी समेत अन्य को इस बात का टीस साल रहा है कि भागलपुर के दंगा पीडि़तों को सरकार ने मुआवजे के तौर पांच-पांच लाख रुपये दिये और प्रत्येक परिवार को 2500 रुपये पेंशन दिया जा रहा, लेकिन यहां के पीडि़तों के साथ भेदभाव क्यों? जब दर्द एक जैसा है तो दवा अलग अलग क्यों?
मनरेगा योजना का भी नही मिला लाभ. सरकारी योजनाओं का लाभ यहां के लोगों ने को नही मिलता है. जबकि वोटर लिस्ट में इनका नाम जुड़ चुका है. यहां निवास करने वाली अधिकतर आबादी दिहाड़ी मजदूरों की है, लेकिन मनरेगा जैसी योजना से यहां के लोगों को कोई लाभ नहीं मिल पाया है. जिस दिन इन्हें काम मिलता है उस दिन घर का चूल्हा जलता है, लेकिन काम नहीं मिलने पर बच्चों के साथ भूखे सोना इनकी नियति बन चुकी है.
यहां के अधिकांश लोगों का घर मिट्टी का है. इंदिरा आवास योजना इन्हें बेमानी सा लगता है. सैकड़ों की तादाद में यहां विधवा और वृद्ध है,मगर विधवा और वृद्धावस्था पेंशन योजना से वंचित है. बिजली के नाम पर सिर्फ खंभा हैं, लेकिन बिजली की रोशनी से वंचित है. सड़कों का बुरा हाल है, लगभग ढ़ाई सौ परिवारों की आबादी वाले इस गांव में पीने के पानी की समुचित व्यवस्था नही है. कुछ लोगों ने 50 से 60 फीट पर चापाकल का हला कर पानी पी रहे है. जो उनके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.
… और नेताओं ने तोहफे दिये है फरेब के. ‘साकिनाने हिंद भी कितने शरीफ है जम्हूरियत के नाम पर हर जुल्म सहते रहनुमाओं ने तोहफे दिये है फरेब के फिर भी हर इंतेखाब में इन्हे वोट देते है’. ऊपर की ये पंक्ति यहां के पीडि़तों की हालत और नेताओं द्वारा किये गये वादे पर सटीक बैठती है. हर चुनाव में नेता इन्हें सब्जबाग दिखा कर इनका वोट वोट तो ले लेते है, लेकिन इनकी बदहाली दूर करने की जरूरत नहीं समझते है. यह सिलसिला पंचायत चुनाव से लेकर लोकसभा चुनाव तक चलता रहता है.
पूर्व मुख्यमंत्री ने दिया था आश्वासन . यहां के लोगों का कहना है कि दंगे के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने समुचित सुविधाएं मुहैया कराने की बात कही थी. उनके अलावा कई नेता आये जो लोकसभा व विधानसभा की कुरसी पर आसीन हुए, लेकिन उनकी स्थिति ज्यों की त्यों बनी हुई है.
अल्पसंख्यकों ने भी घर से निकाला. बताया कि, दंगा का ऐसा रूप था कि हर व्यक्ति अपनी जान बचाना चाह रहा था. यही कारण था कि अपनी जान सांसत में देख अल्पसंख्यक परिवार ने भी नूर आलम को घर से जाने के लिए मजबूर कर दिया. यहां से निकलने के बाद नूर आलम का ठिकाना बना गन्ने का खेत, जहां लोगों की चीख-पुकार सीधे तौर पर सुनायी पड़ रही थी. गन्ने की खेत की तरफ आ रहें खतरे को भांपते हुए नूर आलम वहां से निकल कर गांव के मौजे लाल के यहां पहुंचे,
जहां आश्रय मिला. इस तरह जान बचाने की खातिर भागते-भागते पूरा दिन बीत गया. दूसरे दिन तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के आने के बाद लोगों ने राहत की सांस ली. आप बीती सुनाते हुए नूर आलम की आंख भर आई और संघीय व्यवस्था, कानून व सभ्य समाज कहने वाले के मुंह पर एक सवाल रूपी जोरदार तमाचा जड़ देते है.
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