मोहनपुर : मोहनपुर उस जमाने में पता नहीं किस नाम जाना जाता रहा होगा, गांव भी रहा होगा या नहीं. यदि गांव रहा होगा, तो आबादी कम रही होगी, लेकिन आज के मोहनपुर प्रखंड से जो कुछ गंगा के तटवर्ती गांव पंचायतों के रूप में जुड़े हैं. वहां नीलहे साहबों की कोठियों से लेकर नील की खेती के प्रमाण हाल तक मिलते रहे हैं. करीब पांच दशक पूर्व तक नील की खेती के बाद उसके प्रसंस्करण के लिए बनाये गये हौजों के अवशेष जीवित थ़े फणीश्वरनाथ रेणु की कथाओं में जिन नीलही कोठियों की चर्चा हुई, वैसी कोठियां आज के मोहनपुर प्रखंड के कई गांवों में थीं. कथाओं में इन कोठियों से जुड़ीं घटनाओं का उद्धार नहीं हो पाया़
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गंगा के कटावों ने लीले नीलही कोठियों के अवशेष
मोहनपुर : मोहनपुर उस जमाने में पता नहीं किस नाम जाना जाता रहा होगा, गांव भी रहा होगा या नहीं. यदि गांव रहा होगा, तो आबादी कम रही होगी, लेकिन आज के मोहनपुर प्रखंड से जो कुछ गंगा के तटवर्ती गांव पंचायतों के रूप में जुड़े हैं. वहां नीलहे साहबों की कोठियों से लेकर नील […]
शब्दों के वीरों से यह धरती अछूती नहीं रहीं, लेकिन इस मामले में इसे वीरहीन ही कहेंगे. आज की धरणीपट्टी पश्चिमी पंचायत में दो सौ सालों का था बरूआ बड़़ बड़ के आसपास कई नीलही कोठियां थीं. नीलहे खेत भी थ़े नील की खेती के विरुद्ध चंपारण में हुए सत्याग्रह के समर्थक यहां भी गांधी की जय लगा रहे थ़े लोक धुनों में गांधी बसे हुए थ़े बाके बिहारी राय, सत्यनारायण तिवारी, दानी पंडित, मनसरी भगत समेत दर्जनों लोग गांधी जी के चंपारण आगमन के बारे में अवगत करा रहे थ़े
स्थानीय लोगों को नील की खेती में ब्रिटिश हुकूमत द्वारा की जाने वाली जबरदस्तियों के विरुद्ध हौसले बढ़ा रहे थ़े स्वतंत्रता संग्राम में यहां के लोगों की सक्रियता इसलिए बहुत खास थी कि ये गंगा का तटवर्ती क्षेत्र रहा़ गंगा नदी कई लोगों के छुपने की सुरक्षित जगह थी़ आवागमन के रास्ते मजबूत नहीं होने के कारण गोरों की पलटन यहां कम ही रेंग पाती थी़ लेकिन वक्त ने सारे सबूत लील लिये. यहां करीब सात दशक पूर्व आये बड़े भूकंप से भी जो ऐतिहासिक धरोहरें नहीं हिल पायीं थीं. वे गंगा के विकराल कटाव की बार-बार भेंट चढ़ती रहीं. न तो किसी इतिहासकार ने इस ओर नजर दौड़ायी और न ही किसी स्थानीय व्यक्ति ने इन पर कलम उठाने की जरूरत समझी़ बघड़ा डाकघर स्वतंत्रता संग्राम का साक्षी रहा, तो डाकघर से सटे पश्चिम नीलहे बाबुओं के फाटक का वजूद हाल तक रहा़ गंगा नदी पर बने गुप्ता बांध को बनाने वालों ने कई बौद्ध स्तूप भी देखे थे, तो बांध के नीचे नीलही कोठियों की चौड़ी ईंटें आज भी दबी होंगी, ऐसा समझा जाता है़
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