समस्तीपुर : आस्था का प्रतीक छठ पर्व की अपनी महिमा है़ कहते हैं कि असाध्य रोग व दुख का निवारण इस व्रत को करने से हो जाता है़ सूनी पड़ चुकी गोद किलकारियों से आबाद होती है और रंक राजा बन जाते हैं. महिमा जितनी महान व्रत उतना ही कठिन. पवित्रता, त्याग व हठयोग की भांति तपस्या,
लेकिन मनवांछित फल देने में दिनकर दीनानाथ निराश नहीं करते हैं. परिणाम है कि जिन्हें नहीं कुछ है उनका क्या, जिन्हें सब कुछ है उनमें से कई ऐसे भी हैं, जो मांग कर छठ करते हैं. छठ के मौके पर मांगने का कारण बताते हुए व्रती प्रो निर्मला ठाकुर कहती हैं कि पूजा से पहले लोगों को मन, क्रम व वचन से ही नहीं शरीर से भी वैसा ही दिखना चाहिए, जिसकी पूजा की जा रही है़ यही कारण है कि पूजा करने से पहले लोग स्नान आदि से निवृत होकर तिलकादि लगाकर भगवान की वेशभूषा धारण करते हैं. उसी तरह भगवान से मांगने से पहले लोग अपने को उस अनुरूप ढालते हैं.
दीनता की परम निम्न श्रेणी और तब दिनकर दीनानाथ द्रवित हो उठते हैं, लेकिन यह दिखावे के तौर पर नहीं मन से हो और जब इनसान मन से दीन हो जाता है तब उसे लगता है कि उसका कोई सहारा नहीं है तब भगवान स्वयं सहारा बन जाते हैं. वहीं व्रती प्रो मुन्नी सिन्हा का मानना है कि यह पर्व इतना महत्वपूर्ण है कि अगर नहीं कुछ हो तो भी इस व्रत को जरूर करें. वैसे महंगाई को देखते हुए पर्व महंगा जरूर हो गया नहीं तो इस पर्व में उतना खर्च भी नहीं था़ भले ही आज अल्हुआ और सुथनी खरीदना सबके बूते की बात नहीं हो, लेकिन पूर्व में तो यह सरेआम उपलब्ध था़ टाब नींबू, ईख, आदि, हरदी, मूली जैसी चीजें लोग खरीदते कहां थे़ केला और नारियल लोगों को एक-दूसरे से सहज ही मिल जाता था़ जरूरी है पवित्रता और दीनता से भगवान भास्कर के सम्मुख खड़े होने का़ दीन बनकर जो खड़े हो जाते हैं उनकी मनोकामना पूरी हो जाती है़ वैसे बुजुर्गों की माने तो मिथिलांचल में ऐसी मान्यता है कि भले ही आप समृद्ध क्यों नहीं हो, लेकिन कम-से-कम पांच घरों से मांगकर छठ पूजा में लगाना ही चाहिए. वैसे एक मान्यता ऐसी भी है कि पहले कभी मनौती के रूप में लोगों ने मांगा जो बाद में परिपाटी बन गयी.
पवित्रता व दीनता से भगवान भाष्कर के सम्मुख खड़े होने की जरूरत
भगवान स्वयं बन जाते हैं सहारा