समस्तीपुरः सैकड़ों वर्ष से जुबान की राह चल कर खेतिहर समाज का पथ प्रदर्शन करती चली आ रही प्राचीन भारतीय मौसम दृष्टा घाघ की उक्तियां ज्ञान-विज्ञान के इस युग में भी पूरी तरह मुफीद बैठती नजर आ रही है. किसानों की नजर में बीते कई महीनों से जारी पुरवा बयार अब मानसूनी बारिश की राह में रोड़ा सा अटकाता नजर आ रहा है. नतीजा सावन महीने में भी खेतों से उड़तीधूल सूखे का संकेत देकर किसानों के चेहरे को एक बार फिर से कुम्हालने लग गये हैं.
खेती-बाड़ी पर निर्भर करने वाली अधिकतर आबादी मानसून की बेवफाई से बेकार होकर दलान और खलिहानों में बैठे आसमान में तैरते बादलों के गुबार की ओर प्यास भरी नजर से निहार भर रहे हैं. लेकिन उनकी यह इच्छा हर दिन दफन होकर रह जा रही है. जहां चर्चा के क्रम में किसानों की नजर में आषाढ और मौसम विभाग की गणना में बीते जून महीने में हुई अनुरूप बारिश भी कम नजर आती है. किसानों का कहना है कि आरंभिक दौर में हुई रुक-रुक कर बारिश ने महीनों तक तार-तार रहने वाली धरती के कलेजे को थोड़ा तर अवश्य किया. जिसके उम्मीदों के सहारे किसानों ने अपनी गाढी कमाई से जैसे-तैसे थोड़ा-बहुत धान लगाया. लेकिन इसके बाद मानसून की शुरू हुई दगाबाजी ने किसानों के उत्साह की कमर तोड़ कर रख दी. जिसके कारण किसान जारी मौसम में धान लगाने से अब पूरी तरह मुंह मोड़ने लग गये हैं. उनकी इस टूटती उम्मीद को बचाये रखने में वर्षा के पूर्वानुमान पर
किसानी के पुराने जुमले एक बार फिर भारी पड़ने लगे हैं. जिसमें खास कर महाकवि घाघ की उस उक्ति को मुफीद माना जा रहा है जिसमें घाघ ने सावन महीने में हवा के रुख और होने वाली बारिश पर प्रकाश डाल रखा है कि सावन मास बहै पुरवइया बछवा बेच लेहु गैया. अर्थात सावन महीने में बहने वाली पुरवा हवा सूखे का संकेत देता है. जिससे निपटने के लिए बैल की जगह गाय खरीदनी चाहिए. ताकि उसके दूध से ही जीविकोपार्जन किया जा सके.