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बिहार से समाप्त हुई ‘मैनुअल स्कैवेंजिंग’ यानी सिर पर मैला ढोने की परंपरा, जानें क्या है कानून…

पटना : बिहार से मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी सिर पर मैला ढोने की परंपरा पूरी तरह समाप्त हो गयी है, इस बात की जानकारी बिहार राज्य महादलित विकास मिशन ने राज्य सरकार को सौंपी रिपोर्ट में दी है. रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है कि अब प्रदेश में कहीं भी कोई श्रमिक सिर […]

पटना : बिहार से मैनुअल स्कैवेंजिंग यानी सिर पर मैला ढोने की परंपरा पूरी तरह समाप्त हो गयी है, इस बात की जानकारी बिहार राज्य महादलित विकास मिशन ने राज्य सरकार को सौंपी रिपोर्ट में दी है. रिपोर्ट में इस बात का दावा किया गया है कि अब प्रदेश में कहीं भी कोई श्रमिक सिर पर मैला ढोने का काम नहीं कर रहा है.

मैनुअल स्कैवेंजिंग के खिलाफ कानून

आजादी के बाद भी देश में सिर पर मैला ढोने की परंपरा कायम थी. इस अमानवीय परंपरा को समाप्त करने के लिए भारत सरकार ने 1993 में इस कुप्रथा के उन्मूलन का फैसला किया था.बावजूद इसके देश में यह परंपरा अभी भी कायम है. हालांकि 2012 में संसद ने एक बिल ‘दि प्रोबेशन ऑफ इंप्लायरमेंट एज मैनुअल स्केवेंजर्स एंड देयर रिहेबिलिटेशन’ पास किया और सिर पर मैला ढोने के लिए किसी व्यक्ति को काम पर रखनेवाले के लिए एक साल तक की सजा का प्रावधान किया गया था.

कानून के बावजूद जारी है परंपरा

कानून और सजा के प्रावधान के बावजूद बिहार और झारखंड में सिर पर मैला ढोने की परंपरा कायम थी हालांकि कितने लोग इस काम में जुटे हैं इसकी सही जानकारी नहीं है. वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार देश में मैला ढोने के काम में 180,657 परिवार जुटे हुए थे और मैनुअल स्कैवेंजिंग के कुल 794,000 मामले देश भर में पाये गये थे. इस लिस्ट में महाराष्ट्र राज्य सबसे ऊपर था. वर्ष 2014 में सुप्रीम कोर्ट ने घोषणा की थी कि 96 लाख (9.6 मिलियन) शुष्क शौचालय मैन्युअल रूप से खाली किए जा रहे हैं, लेकिन मैनुअल मैला ढोने वालों की सही संख्या के बारे में बताना मुश्किल है.

क्या है मैनुअल स्कैवेंजिंग

मैनुअल स्कैवेंजिंग में सैप्टिक टैंक नहीं होता है. जहां भी मैनुअल स्कैवेंजिंग होती है, वैसे शौचालयों में नीचे बड़ा डिब्बा लगा रहता है. मैनुअल स्कैवेंजिंग में लगे श्रमिक पहले डिब्बे से मैला को टीन में डालते हैं, उसके बाद उसे सिर पर उठा कर ले जाते हैं. इस काम में जुटे लोग कई तरह की बीमारियों के शिकार भी हो रहे हैं और यह अमानवीय श्रेणी के काम में आता है. दलित समुदाय के लोग इस काम में जुटे होते हैं. आजादी के बाद से ही इस अमानवीय काम को समाप्त करने की कोशिश हो रही है, लेकिन अबतक यह परंपरा जारी है.

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