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बच्चे क्या चाहते हैं यह ज्यादा महत्वपूर्ण, बच्चों के सलाहकार बनें अभिभावक, निर्देशक नहीं
II डॉ मानस बिहारी वर्मा II भूमंडलीकरण के दौर में तमाम तरह की चुनौतियों के साथ अपार संभावनाएं भी हैं. दुनिया के साथ प्रतियोगिता फ्रंटलाइन पर खड़े होकर ही की जा सकती है. इसमें शॉर्टकट काम नहीं करता. आज हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा आर्थिक रूप से सुरक्षित हो. अपने पैरों पर मजबूती […]
II डॉ मानस बिहारी वर्मा II
भूमंडलीकरण के दौर में तमाम तरह की चुनौतियों के साथ अपार संभावनाएं भी हैं. दुनिया के साथ प्रतियोगिता फ्रंटलाइन पर खड़े होकर ही की जा सकती है. इसमें शॉर्टकट काम नहीं करता. आज हर अभिभावक चाहता है कि उसका बच्चा आर्थिक रूप से सुरक्षित हो. अपने पैरों पर मजबूती से खड़ा हो. लेकिन, उन्हें यह समझना होगा कि सिर्फ मेडिकल और इंजीनियरिंग की पढ़ाई ही सफलता का पैमाना नहीं है. विकसित समाज में अवसर की कमी नहीं होती. जो पढ़ेगा, वह किसी भी क्षेत्र में अपनी राह बना लेगा.
माता-पिता को चाहिए कि वे बच्चों पर अपने सपने नहीं लादें. 12वीं तक के बच्चे परिपक्व नहीं होते. उसे शिक्षकों और जानकारों से विचार लेने की स्वतंत्रता दें. एपीजे डॉ अब्दुल कलाम कहते थे, ‘ए गुड मैनेजर ए गुड मेंटर.’ शिक्षक और प्रबुद्ध वर्ग उत्तरदायित्व लेते हैं, तो मेंटरशिप करवाएं. विषयों की जानकारियां देते हुए बच्चों को खुद परीक्षण कर निर्णय लेने दें. साइंस का छात्र बेहतर वकील भी हो सकता है, यह समझना होगा. विषय कोई ले, बच्चों में अवसर का ज्ञान होना चाहिए. हां, एक बात और. विफल होने पर बच्चों का मोरल डाउन नहीं होने दें. उन्हें खुद अपना परीक्षण करने दें. यह उन्हें ताकत ही देगा.
अभिभावक और शिक्षक बच्चों के सलाहकार के रूप में काम करें, न कि निर्देशक बनें. बच्चे क्या चाहते हैं यह महत्वपूर्ण है, न कि माता-पिता क्या चाहते वह.
एनसीईआरटी का सिलेबस बेहतर है. इसमें समय के साथ लगातार परिमार्जन होता रहता है. लेकिन, सवाल है कि क्या सिलेबस बेहतर रहने से बच्चों को बेहतर शिक्षा मिल जायेगी? क्या हम बच्चों तक पाठ्यक्रम को उसी रूप में पहुंचा रहे हैं? शिक्षा में हम प्रोजेक्ट मैनेजर भरते जा रहे हैं.
डायरेक्शन देने या उसे कार्यान्वित करने में हम सफल नहीं हो रहे हैं. बच्चों को हम समझा नहीं पा रहे हैं. जीडीपी का काफी कम भाग शिक्षा पर खर्च हो रहा है, फिर भी बहुत पैसा है. जरूरत इसका व्यवस्थित रूप से इस्तेमाल करने की है. पाठ्यक्रम काटने से भला नहीं होनेवाला. बच्चों को पढ़ना होगा. चीन, अमेरिका या जापान का सिलेबस देखिए. हम गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दे पाते. शॉर्टकट की प्रवृत्ति आनेवाली संतति को खत्म कर देगी.
बदलाव के लिए तंत्र में सुधार की जरूरत है. जापान में 290-295 वर्किंग डे है, अपने यहां 120 दिन भी नहीं. स्कूल खुला रहना वर्किंग डे नहीं हो सकता. सिलेबस के अनुसार पढ़ाई नहीं हो पा रही. शिक्षक मैनेजर बन रहे.
गुरु-शिष्य संबंध समाप्त हो रहा. फिर हमारे बच्चे दुनिया से कैसे कदमताल कर सकेंगे. मुचकुंद कमेटी की रिपोर्ट बंडल बनाकर रख दी गयी है. शिक्षा व्यवस्था को दो भागों में बांट दिया गया है. पैसे वालों के बच्चे निजी स्कूल में और गरीब के बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ रहे हैं. सरकारी सेवक तक अपने बच्चों को सरकारी स्कूल नहीं भेजते. इससे उनकी व्यवस्था को समझा जा सकता है.
हालांकि शिक्षा पर बाजार का दबाव हमेशा से रहा है, पर यह पारिवारिक मूल्य पर निर्भर करता है. समाज और परिवार में जो होता है, बच्चों का वह मूल्य बन जाता है. कम कमाई वाले क्षेत्र में भी विकास का अवसर समान होता है.
ऊर्जा और प्रतिभा होनी चाहिए. माता-पिता बच्चों को सिर्फ बेहतर करने के लिए प्रोत्साहित करें, वे अपना क्षेत्र खुद चुन लेंगे. उनकी जो पसंद है, उसी में उन्हें मेहनत करने की सलाह दें. सभी क्षेत्रों में बेहतर लोगों की मांग हमेशा से रही है.
(डॉ मानस बिहारी वर्मा इसरो के वैज्ञानिक और पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम के मित्र रहे हैं. यह आलेख सतीश कुमार से बातचीत पर आधारित है)
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