Advertisement
बिहार के विकास को आंदोलन बना देने का अनुकूल अवसर
सुरेंद्र किशोर राजनीतिक विश्लेषक जनीतिक धमा-चौकड़ी की समाप्ति के बाद अब बिहार सरकार काम पर है. लगता है कि अब सत्ताधारी जमात काम करेगी और प्रतिपक्षी दल आंदोलन. पर जो निष्पक्ष लोग बिहार को एक विकसित राज्य के रूप में देखना चाहते हैं, उन्हें विकास को आंदोलन का रूप देना होगा. क्योंकि राज्य में विकास […]
सुरेंद्र किशोर
राजनीतिक विश्लेषक
जनीतिक धमा-चौकड़ी की समाप्ति के बाद अब बिहार सरकार काम पर है. लगता है कि अब सत्ताधारी जमात काम करेगी और प्रतिपक्षी दल आंदोलन. पर जो निष्पक्ष लोग बिहार को एक विकसित राज्य के रूप में देखना चाहते हैं, उन्हें विकास को आंदोलन का रूप देना होगा. क्योंकि राज्य में विकास के लिए आज जैसा अनुकूल अवसर है, वैसा पहले कभी नहीं था.
एक तरफ केंद्र सरकार बिहार को भरपूर आर्थिक मदद देने को तैयार है तो दूसरी ओर बिहार सरकार विकास के काम में एक बार फिर पिल पड़ी है. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने मंत्रियों को सुशासन के टास्क दे दिये हैं. साथ ही उन्होंने अफसरों से कहा है कि वे विकास कार्यों को गति दें और सरकारी कामों में पारदर्शिता बरतें. अब खुद मुख्यमंत्री को इस बात की सतत निगरानी बरतनी होगी कि सरकारी साधनों की लूट न हो और कानून-व्यवस्था बेहतर होती जाये. आजादी के बाद से ही पिछड़ापन का दंंश झेल रहे बिहार की जनता को भी चाहिए कि वह विकास कार्यों की निगरानी करे ताकि उनका और अगली पीढ़ियों का जीवन संवरे. शिक्षा और स्वास्थ्य विकास के महत्वपूर्ण संकेतक हैं.
केरल में साक्षरता की जो स्थिति 1960 में थी, बिहार अभी वहीं तक पहुंचा है. स्वास्थ्य की दृष्टि से भी हम काफी पीछे हैं. प्रति व्यक्ति आय के मामले में देश के 12 प्रमुख राज्यों में बिहार का स्थान 1960 में भी सबसे नीचे था. आज भी लगभग वही स्थिति है. बिहार की विकास दर में इधर हाल के वर्षों में तेजी जरूर आयी है. इसका मतलब यह है कि यदि भरपूर साधन मिले तो कमाल हो सकता है. क्योंकि मौजूदा राज्य सरकार में विकास की गति को और बढ़ा देने की क्षमता और इच्छाशक्ति मौजूद है. पर इस काम में लोगों की मदद की भी जरूरत है. क्योंकि विकास की राह में तरह-तरह के कांटे भी हैं.
आजादी के बाद के वर्षों के हालात: आज देश भर के अनेक नेताओं के यहां रह-रहकर आयकर, इडी और सीबीआइ के छापे पड़ रहे हैं. इससे एक अजीब राजनीतिक माहौल बन गया है. राजनीति और प्रशासन में भ्रष्टाचार कितना बढ़ चुका है! अब और कितना बढ़ेगा? या फिर कभी घटेगा भी? इसका जवाब भविष्य देगा. पर एक बात तय है कि आजादी के तत्काल बाद से ही भ्रष्टाचारियों को नजदीक के लैम्प पोस्ट से लटका देने का जवाहर लाल नेहरू का वायदा पूरा हो गया होता तो जो स्थिति आज है, वह नहीं आती. ऐसे में अदम गोंडवी याद आते हैं.
राजनीति में गिरावट की झलक तो आजादी के तत्काल बाद से ही मिलनी शुरू हो गयी थी. पर समय बीतने के साथ इसमें विकरालता और बेशर्मी भी आ गयी. चिंता की बात यह है कि भ्रष्टाचार को खुलेआम जातीय-सांप्रदायिक समर्थन भी मिल रहा है. रामनाथ सिंह उर्फ अदम गोंडवी ने इस गिरावट को पहले ही भांप लिया था. उन्होंने उसे अपनी गजलों में बांधा है.
एक नमूना यहां पेश है-
‘काजू भुनी प्लेट में, ह्विस्की गिलास में, उतरा है रामराज विधायक निवास में, पक्के समाजवादी हैं, तस्कर हों या डकैत, इतना असर है खादी के उजले लिबास में!’
एक और गजल पढ़िए-
‘लगी है होड़ सी देखो अमीरों और गरीबों में, ये गांधीवाद के ढांचे की ही बुनियादी खराबी है, तुम्हारी मेज चांदी की, तुम्हारी जाम सोने के, यहां जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है.’ दुष्यंत कुमार की परंपरा को आगे बढ़ाने वाले उत्तर प्रदेश के गोंडा जिले के गोंडवी ने संभवतः सत्तर के दशक में यह सब लिखा था. यानी आजादी के कुछ ही वर्षों बाद कुछ नेताओं ने देश की ऐसी हालत कर दी थी. ‘उसने लूटा तो हम क्यों न लूटें’ के अघोषित तर्क के साथ कुछ नेताओं में गिरावट बढ़ती जा रही है. परिणामस्वरूप उत्तर-दक्षिण और पूरब-पश्चिम यानी देश के हर कोने में जांच एजेंसियों को सक्रिय होना पड़ रहा है. पता नहीं आगे और क्या-क्या होने वाला है!
भ्रष्टाचार के मामले में भारत और पाकिस्तान
पनामा पेपर्स मामले में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को अदालत से सजा हो गयी. उन्हें पद छोड़ना पड़ा. पनामा पेपर्स मामले में इस देश की भी कुछ हस्तियां भी आरोपी हैं. उनके मामले की अभी भारत सरकार जांच करवा रही है. जांच की गति धीमी है. पाकिस्तान के राजनीतिक विश्लेषक लिख रहे हैं कि ‘पाकिस्तान के कानून की नजर में सभी नेता समान हैं. पर सैनिक तानाशाहों की स्थिति अलग है.
उन पर कानून लागू नहीं होता.’ भारत में गैर राजग दलों के नेता आरोप लगा रहे हैं कि ‘केंद्र सरकार की जांच एजेंसियां प्रतिपक्षी दलों के नेताओं के यहां तो धुआंधार कार्रवाइयां कर रही हैं, पर उनकी नजर में राजग के सारे नेता दूध के धोए हुए हैं.’ जरा दोनों देशों की समानता तो देखिए! क्या कोई चोर किसी को टाइम देकर उसके यहां चोरी करने जाता है?
क्या किसी पुलिसकर्मी को किसी चोर को पकड़ने के लिए उस चोर से एप्वांइटमेंट लेना चाहिए? लेकिन जब किसी नेता के यहां कालेधन की खोज में छापामारी होती है तो नेता कहता है कि यह टाइमिंग सही नहीं है. एक और बात कही जाती है कि राजनीतिक बदले की भावना से प्रेरित होकर छापेमारी हुई है. भई नेता जी, आप जनता से मिले सरकारी टैक्स के पैसे लूट कर जनता से किस जन्म का बदला लेते हैं और लूटने के लिए किससे टाइम पूछते हैं?
गलत जो करे, परिणाम भुगतने को तैयार रहे
टैक्स चोरी के आरोप में जब कर्नाटक के ऊर्जा मंत्री के यहां आयकर महकमे ने छापा मारा तो लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता खड़गे साहब ने सरकार से कहा कि हमें डराओ-धमकाओ मत अन्यथा आपको भी भुगतना पड़ सकता है.
खड़गे साहब की यह बात सही है. आम जनता यही चाहती है कि जो भी गड़बड़ करे, उसे उसका परिणाम जरूर भुगतना चाहिए. पर खड़गे साहब की ही पार्टी तो इस काम में पीछे रह जाती है! क्योंकि आप चाहते हैं कि आपके नेताओं के खिलाफ जो आरोप लगे, उसे भाजपा सरकार पी जाये. उधर भाजपा के नेताओं के खिलाफ जो आरोप लगे, उसे बदले में आप गोल कर दें. सिर्फ जुबानी आलोचना करके अैार सांप्रदायिकता का आरोप लगा-लगा कर आप अपना काम चलाते रहें. कर्नाटका में तो आपकी ही सरकार है.
और वहां के सारे भाजपायी दूध के धुले हुए भी नहीं हैं. वहां की सरकार उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं कर रही है? कांग्रेस में बड़े-बड़े वकील हैं. क्या वे सिर्फ बचाव पक्ष में ही अपनी प्रतिभा दिखाते रहेंगे? क्या जनहित याचिकाओं का प्रावधान सिर्फ डॉ स्वामी और प्रशांत भूषण के लिए है?
और अंत में : मुंबई की विशेष सीबीआइ अदालत ने गुजरात के पूर्व डीआइजी, डीजी बंजारा को सोहराबुद्दीन मुंठभेड़ कांड मुकदमे में इस मंगलवार को बरी कर दिया. सोहराबुददीन अहमदाबाद के अंडरवर्ल्ड के बादशाह अब्दुल रशीद लतीफ का ड्राइवर था. लतीफ के मारे जाने के बाद उसने लतीफ की जगह ले ली थी.
लतीफ को गुजरात पुलिस ने 10 अक्तूबर, 1996 को दिल्ली में गिरफ्तार किया था. 1997 में गुजरात पुलिस की ‘हिरासत से भागने के प्रयास में हुई मुंठभेड़ में’ लतीफ मारा गया था. उन दिनों कांग्रेस समर्थित राष्ट्रीय जनता पार्टी की सरकार थी. मुख्यमंत्री थे दिलीप पारीख. जिन पुलिसकर्मियों ने दाउद इब्राहिम के साथी लतीफ को मारा था, उन पुलिसकर्मियों को तत्कालीन सरकार ने समारोह पूर्वक सम्मानित किया था.
पर जब 26 नवंबर, 2005 में सोहराबुददीन पुलिस मुंठभेड़ में मारा गया तो देश भर में इस ‘फर्जी मुठभेड़’ के खिलाफ हंगामा हो गया. लतीफ और सोहराबुददीन के मामले में कांग्रेस द्वारा अपनाये गये दोहरे मापदंड का राजनीतिक और चुनावी लाभ नरेंद्र मोदी और भाजपा को मिला. अंततः डीआइजी बंजारा अदालत से भी बरी हो गये. संभव है कि लोअर कोर्ट के इस आदेश के खिलाफ सीबीआइ ऊपरी अदालत में अपील करे. पर उससे पहले भाजपा ने तो फायदा उठा ही लिया.
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement