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चलू फोटू घीचू, उहां गिरल है घर

औराई बांध से शैलेंद्र औराई में बागमती के बांध पर रात जैसे-जैसे गहराती है. यहां बनी फूस के झोपड़ियों व टेंटों में भले ही सन्नाटा छा जाता है, लेकिन इसमें रहनेवालों के मन में ये सवाल हमेशा चलता रहता है, आनेवाली सुबह में अपनी दिनचर्या को कैसे आगे बढ़ाना है. बांध के हालात देख कर […]

औराई बांध से शैलेंद्र

औराई में बागमती के बांध पर रात जैसे-जैसे गहराती है. यहां बनी फूस के झोपड़ियों व टेंटों में भले ही सन्नाटा छा जाता है, लेकिन इसमें रहनेवालों के मन में ये सवाल हमेशा चलता रहता है, आनेवाली सुबह में अपनी दिनचर्या को कैसे आगे बढ़ाना है. बांध के हालात देख कर जब हम लोग उस जगह पर जा रहे थे, जहां हमें रुकना था. झोपड़ियों से निकल कर आठ-दस महिलाएं अचानक हमें घेर लेती हैं. कहती हैं, हमारी झोपड़ी टूट गयी है. अहां सब बसा देती, तो अहां कि नाम लेती..ऐसे ही स्थानीय भाषा में लगातार बोलने लगती हैं. एक-एक करके सभी अपनी बात रखती हैं. इनमें कुछ गुस्सा भी होती हैं, जब इन्हें पता चलता है, हम लोग तुरंत इनकी कोई मदद नहीं कर सकते, तो कहती हैं, चलू फोटू घीू, उहां गिरल है हमार घर (झोपड़ी). ये महिलाएं अपना नाम नहीं बताती हैं. टोले के नाम पर कहती हैं मांझा टोला.

13 रुपये में मुजफ्फरपुर

गांव के भुनेश्वर पंड़ित, जुगल सहनी व महेश्वर भी ललन के यहां आये हैं. सब लोग अपनी तरह से बांध दे दुख दर्द को बयान करते हैं. कहते हैं, हाल के महीनों में बड़ा आराम मिला है. बस पकड़ने के लिए पहले रोड पर जाना पड़ता था, लेकिन सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर रेल लाइन शुरु होने से परेशानी कम हो गयी है. अब किराया भी कम लगता है. गांव से शहर जाने के लिए चलना भी कम पड़ता है. बस का किराया तीस रुपये हैं, तो ट्रेन का किराया 13 रुपये. बैठने में आसानी अलग से होती है.

अपनी मिट्टी में रहना

रात ग्यारह बजे के आसपास हम लोग ललन जी के घर की ओर बढ़ते हैं. इनका पुनर्वास हो गया है. दो साल पहले घर बनाने के लिए जमीन मिली, तो ललन ने आनन-फानन में घर बनवा डाला. कहते हैं, रहने की समस्या थी. और लोगों की तरह हम मुजफ्फरपुर शहर में घर नहीं बना सकते थे. हम तो किसान हैं. सेना में रहे कामेश्वर भी गांव में ही रहते हैं. इनके बेटे दिल्ली में रहते हैं, लेकिन इनका मन गांव में लगता है. कहते हैं, भले ही लाख असुविधा है, लेकिन मिट्टी तो अपनी है. यहीं बचपन से रहे हैं, अब जिंदगी के अंतिमम पड़ाव पर इसे कैसे छोड़ सकते हैं. पुनर्वास के इलाके में सोलर लाइट का सहारा है. यहां एक सोलर लाइट पूर्व सांसद कैप्ट जय नारायण निषाद से लगवायी थी. उसके अलावा जिन लोगों ने घर बनवाया है. उन्होंने अपने घरों पर सोलर प्लेट लगा रखी है, जिससे रात के समय इनके घरों में रोशनी रहती है. पंखा भी चलता है.

13 रुपये में मुजफ्फरपुर

गांव के भुनेश्वर पंड़ित, जुगल सहनी व महेश्वर भी ललन के यहां आये हैं. सब लोग अपनी तरह से बांध दे दुख दर्द को बयान करते हैं. कहते हैं, हाल के महीनों में बड़ा आराम मिला है. बस पकड़ने के लिए पहले रोड पर जाना पड़ता था, लेकिन सीतामढ़ी-मुजफ्फरपुर रेल लाइन शुरु होने से परेशानी कम हो गयी है. अब किराया भी कम लगता है. गांव से शहर जाने के लिए चलना भी कम पड़ता है. बस का किराया तीस रुपये हैं, तो ट्रेन का किराया 13 रुपये. बैठने में आसानी अलग से होती है.

कुछ नहीं किया प्रशासन ने

यहां के लोग खुश नहीं है, तो प्रशासनिक व्यवस्था से, क्योंकि केवल बेनीपुर गांव के लोगों का पुनर्वास हुआ है. इसके अलावा आसपास के अन्य गांवों की सुधि नहीं ली गयी है. वहां के विस्थापितों को अभी तक आश्वासन ही मिला है. मछही देवी कहती है, किसी तरह की कोई सुविधा नहीं मिली है. सरकारी जमीन कब मिलती है, कुछ पता नहीं चल रहा है. वहीं, जिन लोगों को जमीन मिली है. उनका कहना है, अभी तक यहां पर रास्ता तक नहीं बना है, जबकि पहले ही रास्ता बनाने की बात हुई थी. जमीन मेंकहीं गड्ढा है, तो कही ऊंचा. ऐसे में आप देख सकते हैं. कैसे पानी लगा हुआ है. नीचले इलाकों में. लोग अपने पैसे से मिट्टी भरवा कर घर बनवा रहे हैं.

मिली जमीन, बना घर

जिन लोगों का पुनर्वास हुआ, उनमें से ज्यादा से ज्यादा पांच डिसमिल जमीन मकान बनाने के लिए दी गयी है. जिस व्यक्ति का गांव में दो डिसमिल जमीन में मकान था, उसे दो डिसमिल जमीन ही दी गयी है. जिसका एक था, उसे एक डिसमिल मिला है, लेकिन जिसका पांच डिसमिल से ज्यादा में मकान था. उसे भी पांच डिसमिल जमीन ही मिली है. गांव में कई लोग ऐसे हैं, जिन्होंने बांध के पार पहले ही जमीन खरीद ली थी. इनमें राम प्रबोध सिंह का नाम प्रमुख है, जिनका मकान गांव में सबसे बड़ा नजर आता है. राम प्रबोध सेना में काम करते थे. अब रिटायर होने के बाद गांव में ही रह रहे हैं. कहते हैं, शहर में इसलिए नहीं बसे, क्योंकि वहां का हवा-पानी भी ठीक नहीं है. साथ ही गांव के दोगुने के ज्यादा खर्च शहर में आता है. यहां जिंदगी अच्छी चल रही है.

सज गयीं दुकानें

बांध के किनारे रात के समय नदी से थपेड़े खाकर आनेवाली हवा सर्द होती है, जो गरमी के दिनों में भी कंबल ओढ़ने के लिए मजबूर कर देती है. यहां प्रदूषण की कोई समस्या नहीं है. आकाश में चांद-तारे एकदम साफ नजर आते हैं. सुबह साढ़े चार बजे ही अंधेरा छंटने लगता है. इसी बीच दूध लेने के लिए आये दूधिये की मोटरसाइकिल से सन्नाटा टूटता है. कुछ देर में चारों ओर उजाला फैल जाता है. बांध पर लगता है, जैसे जीवन फिर से लौट आया है, जो लोग शाम होते ही जमीन, बांस व टूटी नावों को बिस्तर बना कर सोये थे, वह सब नित्यक्रिया में लग जाते हैं. झोपड़ियों में दुकानें सज जाती हैं.

साइकिल का कमाल

सुबह होने के साथ दूधियों की संख्या बढ़ने लगती है. आधा दर्जन दूधिये इधर-उधर बांध पर नजर आते हैं. पास के गांव में ट्यूशन पढ़ाया जाता है, ललन के बच्चे साइकिल से ट्यूशन के लिए निकल पड़ते हैं. वो गर्व से कहते हैं, सरकार ने साइकिल दी है. बांध का जीवन देखने के लिए फिर से हम लोग आगे बढ़ते हैं, तो रात से विपरीत अब बिल्कुल अलग नजारा दिखता है. सब लोग अपने काम में व्यस्त हैं. कोई भैंस का दूध निकाल रहा है, तो किसी झोपड़ी में चाय की दुकान सज गयी है. कहीं पर किराना का सामान बिक रहा है. चाय की दुकानों पर लोगों की संख्या अच्छी खासी है.

काम के लिए तैयार

कुछ लोग सुबह का काम जल्दी से निबटा कर बागमती पार कर चारे की जुगत में जा रहे हैं. ये जल्दी से जल्दी चारा लेकर वापस आना चाहते हैं, क्योंकि इन्हें काम करने के लिए रुन्नीसैदपुर व मुजफ्फरपुर जाना है. नदी पार लोग समूहों में जाते हैं, क्योंकि वहां वनैया सुअर का डर है, जो किसी भी समय हमला कर सकती है. यहां वनैया सुअर के हमले में अब तक कई लोग मारे जा चुके हैं. इसी साल फरवरी के महीने में एक युवक पर सुअर ने हमला किया था, जिसमें उसकी मौत हो गयी थी. इस वजह से लोग सतर्क रहते हैं.

विधायक की बस

अतरार के पास बांध पर बस खड़ी है, जिसकी साफ-सफाई हो रही है. यहां रहनेवाले लोग कहते हैं, विधायक रामसूरत राय की बस है, जो हथौड़ी व गरहां होकर मुजफ्फरपुर जायेगी. तीस रुपये किराया है. सात से साढ़े सात बजे के बीच बस खुलती है, जो लगभग डेढ़ घंटे में मुजफ्फरपुर पहुंच जाती है. इससे बांध के लोगों को काम पर जाने में आसानी होती है. लगभग छह किलोमीटर दूर हथौड़ी के रहनेवाले जदयू के युवा नेता आदर्श कुमार से भी बांध पर मुलाकात होती है. वह भी विस्थापितों के जीवन को दुरूह बताते हैं. कहते हैं, इन लोगों की समस्याओं का अंत नहीं है. इस बीच लगभग साढ़े छह बज जाते हैं. सुबह के सूर्य की रोशनी की तल्खी बढ़ती जा रही है. हम लोग भी वापस मुजफ्फरपुर के लिए चल देते हैं. समाप्त.

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