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बेवजह लिखी जाती हैं 40 से 50 फीसदी एंटीबॉयटिक

मुजफ्फरपुर: पिछली शताब्दी में एंटीबॉयटिक की खोज मानव समाज की बड़ी उपलब्धियों में एक है. इससे अभी तक करोड़ों जिंदगियां बचायी जा चुकी हैं, लेकिन जिस तरह से एंटीबॉयटिक दवाओं का प्रयोग बढ़ा है, उसने विशेषज्ञों में चिंता पैदा करना शुरू कर दिया है, क्योंकि अब हर तरह की बीमारी में इनका प्रयोग किया जाने […]

मुजफ्फरपुर: पिछली शताब्दी में एंटीबॉयटिक की खोज मानव समाज की बड़ी उपलब्धियों में एक है. इससे अभी तक करोड़ों जिंदगियां बचायी जा चुकी हैं, लेकिन जिस तरह से एंटीबॉयटिक दवाओं का प्रयोग बढ़ा है, उसने विशेषज्ञों में चिंता पैदा करना शुरू कर दिया है, क्योंकि अब हर तरह की बीमारी में इनका प्रयोग किया जाने लगा है. इससे ये दवाएं अब बेअसर साबित होने लगी हैं.

डब्ल्यूएचओ के आकड़ों के मुताबिक भारत में 40 से 50 फीसदी एंटीबॉयटिक बेवजह लिखी जा रही है. इनका भयंकर दुष्परिणाम सामने आने लगा है. अब मरीजों की मौत इसलिए होने लगी है, क्योंकि उन पर एंटीबॉयटिक दवाओं का असर होना बंद हो गया है. अगर इन दवाओं के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रभावी कदम नहीं उठाये गये, तो इनके भयावह परिणाम आनेवाले सालों में देखने को मिलेंगे. एंटीबॉयटिक नेशनल टॉस्क फोर्स, भारतीय बाल अकादमी के सदस्य व राष्ट्रीय ट्रेनर (आरएपी) डॉ अरुण शाह इसे बड़ी खतरे की घंटी मानते हैं. डॉ शाह से खास बातचीत के कुछ अंश.

प्रश्न- एंटीबॉयटिक क्या और काम कैसे करती हैं?

उत्तर- एंटीबॉयटिक एक रासायनिक पदार्थ है, जो जीवित फंगस व बैक्टीरिया से बनता है. एलेक्जेंडर फ्लेमिंग ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान इसका अविष्कार किया था. पहले एंटीबॉयटिक का नाम पेंसिलिन था, जिसका व्यापक रूप में प्रयोग उस समय घायल सैनिकों के इलाज में किया गया था. इससे लाखों जिंदगियां बची थीं. इसके बाद से इसका सिलसिला चल निकला और कई तरह की एंटीबॉटिक दवाएं बाजार में आ गयीं. इनका प्रयोग जब दुनिया के सामने आया, तो चिकित्सा के क्षेत्र में एक क्रांति जैसी आ गयी थी. इसे इस तरह से भी कह सकते हैं, बैक्टीरिया से ही बैक्टीरिया को मारा जाता है.

प्रश्न- तो फिर इन दवाओं का दुरुपयोग कैसे?

उत्तर- इसे समझने के लिए पहले आपको इंफेक्शन के प्रकार जानने होंगे. दरअसल, इंफेक्शन तीन तरह के होते हैं. पहला बैक्टीरियल, दूसरा वायरल व तीसरा फंगल. एंटीबॉयटिक दवाओं का रोल सिर्फ बैक्टीरियल इंफेक्शन में होता है, लेकिन मेडिकल प्रेक्टिशनर्स ने इसका गलत अर्थ निकाला और वो हर तरह के इंफेक्शन में ये दवाएं लिखने लगे. अभी अपने यहां बड़े पैमाने पर वायरल इंफेक्शन में एंटीबॉयटिक दवाओं का प्रयोग होता है. कई बार तो डॉक्टर एक साथ कई-कई एंटीबॉयटिक लिख देते हैं, जबकि इनकी कोई जरूरत ही नहीं होती है. इसे आप इस तरह से भी समझ सकते हैं, अगर किसी को सर्दी, खांसी, बुखार व दस्त आदि हो रहा है. ये सब ज्यादातर वायरल इंफेक्शन के कारण होते हैं. हम पहले ही बता चुके हैं, वायरल में एंटीबॉयटिक की जरूरत नहीं होती है, लेकिन स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़े चिकित्सक धड़ल्ले से ये दवाएं लिख देते हैं.

प्रश्न- जब हम बिना बीमारी ही ये दवाएं खा रहे हैं, तो इसके दुष्परिणाम भी होंगे?

उत्तर- इसमें सबसे बड़ी चिंता का विषय ये है कि एंटीबॉयटिक के गलत प्रयोग से मानव शरीर पर इनका प्रभाव कम होता जा रहा है. ये केवल अपने देश नहीं बल्कि पूरे विश्व में चिंता का विषय है. अगर यही स्थिति रही, तो आनेवाले सालों में लोग छोटी-छोटी बीमारियों से मरने लगेंगे, क्योंकि उस समय एंटीबॉयटिक दवाएं उन पर असर नहीं करेंगी. लोग निमोनिया, मियादी बुखार, टीबी जैसी बीमारियों से फिर मरने लगेंगे. यही नहीं, इसके साइड इफेक्ट भी होते हैं. अगर किसी ने बेवजह एंटीबॉयटिक ले ली है, तो उसकी हालत बिगड़ने लगती है. कई बार लोगों की जान भी चली जाती है. एंटीबॉयटिक दवाएं महंगी होती हैं, इससे इलाज का खर्च भी बढ़ता है और अंत में सबसे बड़ा दुष्परिणाम. इन दवाओं के दुरुपयोग से हमारा एंटीबॉयटिक दवाओं का खजाना भी खाली होता जा रहा है.

प्रश्न- क्या अगले जेनेरेशन की एंटीबॉयटिक दवाओं का अब काम नहीं हो रहा?

उत्तर- लगभग सात दशक से इन दवाओं का उपयोग चिकित्सा जगत से जुड़े लोग कर रहे हैं. पहली एंटीबॉयटिक पेंसिलीन थी, जिसका असर आनेवाले सालों में कम होता गया. इसके बाद दूसरे जेनेरेशन की दवाओं ने इसका स्थान लेना शुरू कर दिया. पेंसिलीन अब भी आती है, लेकिन उसका प्रयोग काफी कम है, जबकि इस समय सिफोलोस्परिन जैसी एंटीबॉयटिक का प्रयोग अब बड़े पैमाने पर होता है. हम अपनी बात बताना चाहेंगे, जब हम एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे थे, तब सेफ्ट्रान (को-ट्राइमेक्साजॉल) आयी थी, तब इसे चमत्कारिक दवा माना जाता था. उस समय हर बीमारी में इसे लिखा जाता था, लेकिन इसका इतना अधिक दुरुपयोग हुआ कि शरीर पर इसका असर ही होना बंद हो गया. सेफ्ट्रान के बाद फ्लोरोक्युनोलॉन समूह की दवाएं आयीं, तो इन्हें भी चमत्कारिक माना गया. व्यापक रूप से इनका भी प्रयोग सभी तरह की बीमारियों में किया गया.

प्रश्न- आखिर गलती शुरू कहां से हुई?

उत्तर- दशकों पहले से चिकित्सा जगत में ये भ्रांति रही है कि सभी तरह के इंफेक्शन का मूल कारण बैक्टीरियल इंफेक्शन ही है और वो बिना एंटीबॉयटिक दिये ठीक नहीं होगा, जबकि ऐसा है नहीं. बुखार, सर्दी-खांसी, कय-दस्त जैसी आम बीमारी का मुख्य कारण वायरल इंफेक्शन है, जो कि खुद ही ठीक हो जाता है. अगर आप एंटीबॉयटिक की जगह इस तरह की बीमारियों में लक्षण पर आधारित दवाएं लें, तो सुधार होता है. इससे बीमारी ठीक हो जाती है. मसलन,कय-दस्त की बीमारी में आप ओआरएस, जिंक व लगातार पोषण देते रहें, तो 99 फीसदी बीमारी खुद ही ठीक हो जायेगी. इसमें जो एंटीबॉयटिक दी जाती है, गलती यहीं से शुरू होती है.

प्रश्न- इसे किस तरह से रोका जा सकता है?

उत्तर- इसके लिए विभिन्न स्तर पर काम करना होगा. जैसे, विदेशों में डॉक्टरों का लाइसेंस रिन्यूवल के लिए सीएमइ (कंटीन्यूइंग मेडिकल एजुकेशन) ऑवर तय हैं. वैसी ही व्यवस्था अपने यहां भी सरकार को करनी चाहिए. अभी इसका अभाव है. चिकित्सा जगत से जुड़े लोगों को एंटीबॉयटिक के विभिन्न पहलुओं की जानकारी दी जानी चाहिए. इसमें इसके दुष्परिणाम भी शामिल हों. कई बार मरीज खुद मेडिकल स्टोर से लेकर एंटीबॉयटिक दवाएं खा लेते हैं. इस पर प्रतिबंध लगना चाहिए. बिना डॉक्टर के पुज्रे के एंटीबॉयटिक दवाएं नहीं दी जानी चाहिए. अभी देखने में ये भी मिलता है, आयुव्रेद, होम्योपैथ, युनानी व झोलाझाप डॉक्टर भी धड़ल्ले से एंटीबॉयटिक लिखते हैं. इस पर भी प्रभावी रोक लगनी चाहिए. सरकार की ओर से एंटीबॉयटिक दवाओं के प्रयोग को लेकर राष्ट्रीय गाइड लाइन जारी की जानी होनी चाहिए और इनका प्रचार-प्रसार बड़े पैमाने पर होना चाहिए, ताकि लोगों को ये पता रहे कि उन्हें किन स्थितियों में एंटीबॉयटिक दवाओं का प्रयोग करना है.

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