प्रतिनिधि, तारापुर. शहीदों के मजारों पर लगेंगे हर वर्ष मेले, वतन पे मरने वालों की बांकी यही निशा होगी… की पंक्ति को चरितार्थ करते हुए तारापुर के वीर वाकुरों ने तारापुर थाना भवन पर अपने सीने में गोलियां खाकर तिरंगा लहराने का काम किया. भारत माता को आजादी कितनी कुर्बानियों के बाद हासिल हुई है, इसका अंदाजा शायद नई पीढ़ी को आज नहीं होगा. आजादी की लड़ाई में बिहार के तारापुर थाना गोलीकांड कितनी महत्वपूर्ण घटना थी. इस घटना की जितनी चर्चा होनी चाहिए थी, शायद उतनी हो नहीं पायी है. तारापुर 15 फरवरी 1932 को ब्रिटिश हुकूमत द्वारा हुए भीषण नरसंहार के लिए जाना जाता है. आजादी के दीवाने 34 वीर बांकुरों ने तारापुर थाना भवन पर तिरंगा फहाराने के संकल्प को पूरा करने के लिए सीने पर गोलियां खायी थी और वीर गति को प्राप्त करते हुए तिरंगा लहराने का काम किया था. जिनमें से मात्र 13 शवों की पहचान हो पायी थी. शेष 21 अज्ञात रह गये.
इतिहास गवाह है तारापुर के क्रांतिवीरों का बलिदान
इतिहास गवाह है कि 1931 के गांधी इर्विन समझौते को रद्द किए जाने के विरोध में कांग्रेस सरकारी भवन से यूनियन जैक उतारकर तिरंगा फहराने के लिए पहल की गयी थी. सुपौर जमुआ के श्रीभवन में तारापुर थाना भवन परिसर पर तिरंगा फहराने की योजना बनी थी. 15 फरवरी 1932 को आस-पास के गांव के हजारों युवाओं ने तिरंगा फहराने के संकल्प के साथ तारापुर थाना भवन पर धावा बोला और भारत माता की जय और वंदे मातरम का जयघोष कर रहे थे. उस वक्त के कलेक्टर ईओ ली व एसपी डब्लू फ्लेग ने स्वतंत्रता सेनानियों पर अंधाधुंध गोलियां चलवा दी थीं. ब्रिटिश हुकूमत की गोली के शिकार हुए तारापुर के विश्वनाथ सिंह, महिपाल सिंह, शुकुल सोनार, संता पासी, झोठी झा, सिंघेश्वर राजहंस, बद्री मंडल, चंडी महतो, शीतल, बसंत धानुक, रामेश्वर मंडल, देवी सिंह, अशर्फी मंडल की पहचान हुई. जबकि अन्य 21 शहीद आज भी गुमनाम हैं. जिन शहीदों की पहचान हुई है उनकी निशानी अभी भी तारापुर शहीद स्मारक में लगे शिलापट्ट पर अंकित है.
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