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याद बन कर रह गया बचपन का झूला

पंचदेवरी : सावन के झूले अब सिर्फ बचपन की यादें बनकर रह गये हैं. एक समय था जब महिलाएं, युवतियां व युवा पेड़ की डालियों पर झूला झूलते थे. अब वे बागीचें कट कर खेत में तब्दील हो गये है. आम के बगीचें में अब गन्‍ने की खेती हो रही है. जो चंद दिनों की […]

पंचदेवरी : सावन के झूले अब सिर्फ बचपन की यादें बनकर रह गये हैं. एक समय था जब महिलाएं, युवतियां युवा पेड़ की डालियों पर झूला झूलते थे. अब वे बागीचें कट कर खेत में तब्दील हो गये है. आम के बगीचें में अब न्‍ने की खेती हो रही है. जो चंद दिनों की हरियाली के अलावा कुछ भी नहीं है. आज गांव के छोटेछोटे बागीचे अपने भाग्य पर आंसू बहा रहे हैं. वहां सावन में महिलाएं, युवतियां युवा नहीं बल्कि आम खरीदने वाले व्यापारी नजर आते हैं.

* प्रकृति के स्पर्श से टूटा नाता : सावन के झूले के साथ परंपरा से भी नाता टूट रहा है. झूले के बहाने महिलाएं पेड़ों के नीचे प्रकृति का आनंद उठाती थी. उन्हें थोड़ी देर के लिए खुली हवा में सांस लेने का अवसर और बालपन का एहसास होता था. पड़ोसियों के साथ मेलमिलाप का अवसर झूला के बहाने मिलता था, बदलते समय में यह सब पुराने दिनों की बात हो गयी है.

* खेल नहीं शान का प्रतीक : झूला अब सावन के परंपरा से दूर हवेलियों में शान का प्रतीक बन कर रह गया है. हैसियत के अनुसार लोग तरहतरह के झूलों से अपनी हवेलियों की शोभा शोभा बढ़ा रहे हैं. अपार्टमेंट के बालकनी और बरामदे में ऐसे झूले सालों भर लटकते दिखते हैं.

* रस्म अदायगी भर रह गये झूले : परंपरागत सावन के झूले अब बड़े शहरों की महिलाओं के क्लबों तक सीमित होकर रह गये हैं. अब क्लबों में बिरादरी की महिलाएं सावन महोत्सव के बहाने झूले का आनंद सिर्फ रस्म अदायगी के लिए उठाती हैं. भठवां निवासी सुंद्रावती देवी, सोनी देवी, बेबी देवी आदि बताती है कि सावन के झूले बालपन की याद दिलाती है. हालांकि हम अपने गांव जब तक रहे झूले का आनंद उठाते थे. भठवां की बहु बनने के बाद सावन के झूले मायके में ही खत्म हो गये.

* जन्माष्टमी पर मंदिरों में लगते झूले : पंचदेवरी में श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर मंदिरों में झूले की परंपरा आज भी चली रही है. बाल भगवान को श्रद्धालु रेशम की डोर और फूलों से सजे झूले पर झूलाकर पूजाअर्चना करते हैं. इस मौके पर महिलाएं परंपरागत गीत गा कर पूरी रात झूलनोत्सव का आनंद लेती है.

* पुरानी फिल्मों में सिमट कर रह गये झूले : परंपरागत सावन के झूले की याद अब फिल्मों में ही देखने को मिलते हैं. हालांकि नयी फिल्मों में इसका स्थान नहीं है. सावन के झूले पर हिंदी फिल्मों में बिरह, झूमर और परदेशी के प्रति प्यार का इजहार है. ऐसे में युवतियां धीरेधीरे फैंशन के धुन में गुम हो रही है. जिसे नयी पीढ़ी अब कुछ ही वर्षो में बिल्कुल ही भूल जायेगी.

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