गया की स्थिति बेहद ख़राब
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मगध प्रमंडल की 57% गर्भवती महिलाओं में खून की कमी, 20% की हो जाती है मौत
गया की स्थिति बेहद ख़राब मगध के बाकी जिलों से बेहतर है औरंगाबाद की हालात गया : मगध प्रक्षेत्र की 56.82 % गर्भवती महिलाओं के शरीर में खून की कमी है. मेडिकल लैंग्वेज में कहें तो ये एनिमिया की शिकार हैं अथवा यूं कहें कि खून की कमी से परेशान हैं. गर्भवती महिलाओं में 40 […]
मगध के बाकी जिलों से बेहतर है औरंगाबाद की हालात
गया : मगध प्रक्षेत्र की 56.82 % गर्भवती महिलाओं के शरीर में खून की कमी है. मेडिकल लैंग्वेज में कहें तो ये एनिमिया की शिकार हैं अथवा यूं कहें कि खून की कमी से परेशान हैं. गर्भवती महिलाओं में 40 फीसदी ऐसी स्त्रियां होती हैं, जिनकी स्थिति खून की कमी में बेहद खराब होती है. इनमें लगभग 20 फीसदी तो गर्भावस्था में ही स्वर्ग सिधार जाती हैं. समाज के हर जिम्मेवार नागरिक को हैरान करनेवाली यह रिपोर्ट नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे (एनएफएचएस) की है.
एनएफएचएस ने जो रिपोर्ट तैयार की है, वह गया को तो और भी परेशान करनेवाली है. दरअसल, इस जिले में महिलाओं की स्थिति मगध प्रक्षेत्र के बाकी जिलों की महिलाओं से भी खराब बतायी गयी है. गया की 68.1 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं खून की कमी से लड़ रही होती हैं.
अरवल में ऐसी महिलाओं का आंकड़ा 57.8 फीसदी है. जहानाबाद जिले की 55.1 प्रतिशत गर्भवती महिलाएं खून की कमी से परेशान होती हैं, तो औरंगाबाद में भी कमोबेश इतनी ही महिलाएं इस चैलेंज का सामना करती हैं. हां, नवादा इस मामले में थोड़ा बेहतर है, जहां खून की कमी से दो-चार हो रही गर्भवती महिलाओं की तादाद 48 फीसदी के करीब है.
ठीक नहीं है सामान्य महिलाअों की भी सेहत: मगध प्रक्षेत्र को केंद्रित कर एनएफएचएस ने 15 से 49 वर्ष आयु की महिलाओं के बीच सर्वेक्षण आधारित जो रिपोर्ट तैयार की है, वह सामान्य महिलाओं के हेल्थ को भी ठीक नहीं बता रही. यह रिपोर्ट बताती है कि मगध की 57.86 फीसदी महिलाएं अपने शरीर में रक्तसंकट का सामना कर रही हैं. यानी आधी आबादी का आधा से भी बड़ा हिस्सा खून की कमी से संकट में जी रहा है. खून की कमी उसके सामने तरह-तरह की कमजोरी और बीमारियों की चुनौती भी
पैदा कर रही है. खास बात यह है कि गर्भवती महिलाओं की भांति इस मामले में भी गया जिला ही सबसे खराब हालत में है. रिपोर्ट के अनुसार, यहां की 61 फीसदी से अधिक सामान्य महिलाएं भी एनिमिया की शिकार हैं. इस मामले में औरंगाबाद की महिलाओं की स्थिति गया या मगध के बाकी जिलों से बेहतर है. इस जिले की लगभग 54 फीसदी महिलाएं एनिमिक बतायी गयी हैं. रिपोर्ट के मुताबिक, जहानाबाद, अरवल व नवादा की क्रमश: 56.7, 57.4 और 58.8 प्रतिशत सामान्य महिलाएं अपनी निजी जिंदगी में खून की कमी का सामना कर रही हैं.
महाराष्ट्र दिखा रहा रास्ता
महिलाओं में कुपोषण व एनिमिया की स्थिति बदलने के मामले में महाराष्ट्र देश के दूसरे प्रदेशों की तुलना में ज्यादा गंभीर है. विश्व स्वास्थ्य संगठन के सर्विलांस मेडिकल आॅफिसर डॉ सुहास खेड़कर के अनुसार, बीते कुछ सालों में महाराष्ट्र सरकार ने लड़कियों को एनिमिया नहीं हो, इसके लिए सरकारी स्तर पर प्रयास शुरू किया है. वहां के स्कूलों में 11-12 साल की उम्र से ही लड़कियों में हेमोग्लोबिन की जांच शुरू कर दी जाती है. कमी पाये जाने पर उन्हें आयरन की गोलियां दी जाती हैं. इस सरकारी प्रयास से लड़कियों में एनिमिया की समस्या पर काफी हद तक काबू पाया जा सकेगा. श्री खेड़कर कहते हैं कि दूसरी जगह भी सरकार व समाज को इसे फॉलो करना चाहिए.
आहार के मामले में जागरूकता की कमी
मगध के समाज की एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि यहां की आबादी को संपूर्ण आहार के बारे में कम जानकारी होती है. महिलाओं में तो यह जागरूकता नहीं के बराबर ही है. अधिकतर लोग पेट भर जाने से ही मान लेते हैं कि उन्हें आहार मिल गया. पर, ऐसा नहीं है. केवल पेट भर जाने से ही नहीं माना जा सकता कि स्वास्थ्य के लिए जरूरी सभी प्रकार के अवयव भोजन के साथ शरीर को मिल गये. इस मामले में पुरुषों की स्थिति थोड़ी अलग है. दरअसल,
वे घर से बाहर निकलने की वजह से जगह-जगह कुछ अलग-अलग चीजें खाने को पा भी जाते हैं. इससे उनकी कमियां एक हद तक दूर हो जाती हैं. पर, महिलाएं अधिकतर घरों में रहती हैं. वे सिर्फ घर में बने भोजन के भरोसे ही रह जाती हैं.
बाकी लोगों से बेहतर हैं आदिवासी महिलाएं
महिलाओं की शारीरिक, सामाजिक व आर्थिक दशा पर काम करनेवाली संस्था ब्रेकथ्रू की सीनियर मैनेजर (मॉनिटरिंग एंड इवैल्यूएशन) संचिता घोष कहती हैं कि वह अपनी शोध आधारित एक फाइंडिंग से बेहद रोमांचित हैं कि आमतौर पर जिन आदिवासियों को अनपढ़ व बेतरतीब ढंग से जीने का अभ्यस्त माना जाता है, उनकी स्थिति बाकी लोगों से काफी बेहतर है. वैसे, इसका कारण भी रोचक है. आदिवासियों ने बातचीत में उन्हें बताया कि उनके समाज में कामकाज की जिम्मेवारी महिला-पुरुष, दोनों की ही लगभग समान होती है. आदिवासी पुरुषों को पता होता है कि अगर महिलाओं को पर्याप्त भोजन नहीं मिला, तो वे काम में सहयोग नहीं कर सकेंगी. आरामतलब जिंदगी से दूर इनके लिए मेहनत के अतिरिक्त कोई दूसरा विकल्प भी नहीं होता. इनके यहां महिलाएं जब गर्भवती होती हैं, तो पुरुष उनका विशेष ख्याल रखते हैं. क्योंकि, उन्हें मालूम होता है कि बच्चा अगर कमजोर या कुपोषित हुआ, तो उनके परिवार पर बोझ और भी बढ़ जायेगा.
लैंगिक असमानता है बड़ी मुसीबत
मगध प्रक्षेत्र के जिलों में 20% गर्भवती महिलाओं की मौत प्रसव के दौरान सिर्फ इसलिए हो जाती कि उनके शरीर में पर्याप्त खून नहीं होता. हालांकि,स्त्री रोग विशेषज्ञ डाॅ रीना सिंह बताती हैं कि अस्पताल में प्रसव के लिए आने वाली लगभग 40%महिलाएं ऐसी होती हैं, जिनके शरीर मे खून की मात्रा काफी कम होने की वजह से बेहद खराब हालत में पहुंची होती हैं. स्वास्थ्य विशेषज्ञ आशंका जता रहे हैं कि अगर हालात नहीं बदले, तो आनी वाली कई पीढ़ियां कुपोषण का शिकार दिखेंगी. इनका आंकड़ा अगली पीढ़ी के बच्चों की कुल आबादी का 15% तक का हो सकता है, जो देश-दुनिया के सामने बेहद खराब अवस्था में इस समाज की तसवीर पेश करेगा. इन कुपोषित बच्चों का पर्याप्त शारीरिक व मानसिक विकास नहीं हो सकेगा. तमाम सरकारी व गैर सरकारी प्रयासों के बाद भी एसी स्थिति के पीछे लैंगिक असमानता को ही सबसे बड़ा कारण माना जा रहा है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम कर रहे विशेषज्ञों के मुताबिक, तमाम डेवलपमेंट की बात करने वाले समाज में अब भी स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता की जड़ें काफी गहरी व मजबूत हैं. गांवों में अब भी खान-पान और देख-रेख के मामले में लड़कियों को बड़े पैमाने पर भेदभाव का शिकार होना पड़ता है.
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