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भगवान की प्राप्ति के लिए भक्ति आवश्यक

कमतौल . जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती. भगवान के लिए भक्ति करें. भक्ति का फल भगवान होना चाहिए. सांसारिक सुख नहीं़ कुछ मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है़ अहियारी गोट स्थित राम कुटी में चल रहे श्रीमद्भागवत कथा के छठे दिन सोमवार को लाडली जी महाराज ने यह बातें कही. कहा […]

कमतौल . जहां भोगेच्छा है वहां भक्ति नहीं होती. भगवान के लिए भक्ति करें. भक्ति का फल भगवान होना चाहिए. सांसारिक सुख नहीं़ कुछ मांगने से प्रेम की धारा टूट जाती है़ अहियारी गोट स्थित राम कुटी में चल रहे श्रीमद्भागवत कथा के छठे दिन सोमवार को लाडली जी महाराज ने यह बातें कही. कहा की भगवान श्रीकृष्ण को जो आनंद गोकुल में गोपियों से मिला, वह द्वारका में नहीं मिला. क्योंकि गोपियों का प्रेम निष्काम था़ उन्होंने कथा वाचन के दौरान कहा कि एक समय राजा जनक के दरबार में शुकदेव और नारद दोनों पधारे़ दोनों अपने आप में महापुरुष थे. परन्तु राजा जनक इसका समाधान नहीं कर सके कि इनमें से कौन श्रेष्ठ है? फिर बिना परीक्षा के इसका उत्तर पाना भी कठिन था. इसलिए राजा जनक ने अपनी पत्नी सुनयना को इन दोनों की परीक्षा लेने को कहा़ रानी सुनयना सोलह श्रृंगार कर दरबार में आयी और दोनों के बीच सटकर बैठ गयी़ नारद जी को संकोच हुआ, वे वहां से उठकर दूर जाकर बैठ गये़ परन्तु शुकदेव जी वैसे ही बैठे रहे़ उनको भान तक नहीं हुआ कि उनके बगल में कोई स्त्री है या पुरुष़ बस फिर क्या था रानी सुनयना ने अपने निर्णय से राजा सहित दरबार में उपस्थित आगंतुकों को अवगत करा दिया़ उन्होंने बताया कि दोनों महापुरुष में शुकदेव जी ही श्रेष्ठ हैं़ प्रसंगवश कथा को आगे बढाते हुए महाराज जी ने कहा कि ध्यान के लिए प्रभु के एक ही स्वरुप का बार बार चिंतन करना चाहिए़ एक ही स्वरुप का चिंतन करने से मन एकाग्र हो जाता है़ ध्यान की मुद्रा में बैठने पर पहले तो संसार के अनेकानेक विषय उभरते हैं, वे बातें मन में न आये इसलिए परमात्मा के नाम का चिंतन करना चाहिए़ जिससे मन स्थिर हो सके़

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