दरभंगा : जनसंघ काल से ही दरभंगा पार्टी के गढ़ के रूप में विख्यात रहा है. आरएसएस के विस्तृत फलक व कार्यों की वजह से यहां से दल को जीत मिलती रही. आचार्य सुरेंद्र झा सुमन इसमें जीत के नायक भी बने, लेकिन चार दशक से अधिक की अवधि में स्थानीय नेता अपनी पार्टी को जीत दिलाने में कामयाब नहीं हो सके.
या यूं कहें कि चुनाव परिणाम को जीत में तब्दील करने लायक स्थानीय मतदाताओं का विश्वास व समर्थन हासिल नहीं कर सके. तत्कालीन कारण भले ही जो रहे हों, लेकिन रिजल्ट एक समान ही रहे. भाजपा को हार का ही मुंह देखना पड़ा. कई स्थानीय कद्दावर नेता पराजित हो गये.
उल्लेखनीय है कि भाजपा ने यहां से ताराकांत झा, धीरेंद्र कुमार झा सरीखे स्थानीय नेताओं पर दांव खेला. पार्टी कार्यकर्त्ता उर्जा के साथ चुनावी समर में लड़े भी, लेकिन जीत का सूखा खत्म करने में सफल नहीं हो सके. दल ने मान लिया कि इस सीट पर अगर जीत चाहिए तो बाहर से ही किसी नेता को लाना होगा.
लिहाजा अंतत: संगठन को बाहर से नेता को मैदान में उतारना पड़ा. दिल्ली की राजनीति में सक्रिय कीर्ति आजाद को यहां एमपी चुनाव में भेजा. उन्होंने जीत का सूखा खत्म करते हुए पहली ही बार राजद के अली अशरफ फातमी को पराजित कर दिया. इसके बाद वे यहां से चार बार चुनाव लड़े, जिसमें तीन बार जीत हासिल की.
वैसे श्री आजाद का दरभंगा से संबंध रहा, पर न तो उनकी राजनीतिक जमीन यहां थी और न ही वे इस क्षेत्र के रहने ही वाले थे. इस बीच श्री आजाद 2014 के चुनाव में जीत के बाद ही पार्टी से बिदक गये. उन्हें भाजपा ने निलंबित कर दिया. राजनीतिक परदृश्य बदला. वे कांग्रेस में चले गये.
2019 के चुनाव को लेकर एक बार फिर यह बात सियासी फिजा में गूंज उठी कि क्या इस बार भी बाहरी प्रत्याशी को भाजपा मैदान में उतारेगी. इस चर्चा के साथ स्थानीय पार्टी नेता में विनिंग मैटेरियल नहीं होने की बात होने लगी. दल ने दशकों बाद गोपालजी ठाकुर के रूप में स्थानीय उम्मीदवार को मौका दिया. श्री ठाकुर ने इस मिथक को तोड़ते हुए ऐतिहासिक जीत हासिल की. इसके साथ ही स्थानीय कार्यकर्त्ताओं व नेताओं के लिए भविष्य का द्वार भी खोल दिया है.