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नयी पीढ़ी को मिट्टी के बरतन में रुचि नहीं

जाले : बाढ़ की विभीषिका से केवल किसानों ही नहीं बल्कि उनके साथ-साथ मिट्टी के बर्तन बनाने वाले भी त्रस्त हुए हैं. बर्तन बनाने लायक मिट्टी नहीं मिल रही. बाढ़ के कारण मिट्टी में कंकर पत्थर की मात्रा बढ़ गयी है. एक-एक बर्तन बनाने में इससे काफी समय लगता है. बर्तन को पकाने के लिए […]

जाले : बाढ़ की विभीषिका से केवल किसानों ही नहीं बल्कि उनके साथ-साथ मिट्टी के बर्तन बनाने वाले भी त्रस्त हुए हैं. बर्तन बनाने लायक मिट्टी नहीं मिल रही. बाढ़ के कारण मिट्टी में कंकर पत्थर की मात्रा बढ़ गयी है.
एक-एक बर्तन बनाने में इससे काफी समय लगता है. बर्तन को पकाने के लिए जलावन की भी समस्या है. वहीं खरीदारों की संख्या लगातार घटती जा रही है. छठ पर्व पर परंपरानुसार लोग मिट्टी के वर्तन का ही उपयोग करते आये हैं. पिछले कुछ सालों से इसकी जगह तांबा व पीतल का वर्तन लेता जा रहा है. इससे इस पेशे से जुड़े कुंभकारों के सामने जीविका निर्वाह की समस्या आ खड़ी हुई है. ब्रह्मपुर हाट में बर्तन बेचने आये कुंभकारों का कहना है कि इलाके में आई बाढ़ की वजह से बर्तन के लायक मिट्टी नहीं मिल रही है. इस कारण दूर-दूर जाकर मिट्टी खरीदकर लाना पड़ता है.
खत्म नहीं होने वाली मिट्टी के बर्तन की मांग: मिट्टी के बर्तन लाकर बेचने आये सिंहवाड़ा प्रखंड क्षेत्र के कटका पंचायत के दहसील-पैड़ा निवासी दामोदर पंडित कहते हैं कि बर्तन बनाने वाली मिट्टी में एक भी कंकर नहीं होना चाहिए. बाढ़ के पानी के साथ खेतों में अत्यधिक कंकर आ गया है. इस वजह से इलाके में बिना कंकर का मिट्टी मिलना भी कठिन हो गया है. इसके लिए मिट्टी काफी दूर-दूर से जोगाड़ करके पांच सौ से हजार रुपये ट्रेलर खरीद कर लाना पड़ता है.
दामोदर ने बताया कि बर्तन बनाना एक मात्र आमदनी का जरिया है. बर्तन बनाने का काम पति-पत्नी को करना पड़ता है. इसमें बाल-बच्चा सहयोग नहीं करता. दामोदर ने बताया कि मिट्टी के बर्तन की मांग हमेशा रहती है. मांग कभी खत्म नहीं होने वाली है. मगर नयी पीढ़ी इस पेशा को छोड़ अन्य रोजगार को अपनाने लगी है.
दीपक नहीं मिलेगा तो लोग जलायेंगे बिजली की लड़ियां
सुरेश पंडित कहते हैं कि इस पेशा में रहने के कारण छोटे-बड़े सभी तरह के लोगों से भेट-मुलाकात होती है. एक दूसरे की जरुरतों को पूरा करते हुए जीवनयापन करते हैं. इससे समाज में भाईचारा बना रहता है.
आज के लड़के अकेले मोबाईल लेकर अपनी दुनिया में खोये रहते हैं. सुरेश का कहना है कि गांव में बिजली की लड़ियों को जलाने वाले लोगों की संख्या काफी कम है. ज्यादातर लोग दीप ही जलाते हैं. जब दीप नहीं मिलेगा तो वे भी बिजली की लड़ियां ही जलाने को मजबूर होने लगेंगे.

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