हरसिंगार : के फूल से पेड़ लद गये हैं. सप्तशती का श्लोक गूंज रहा है. पूरे माहौल में एक पवित्रता है, एक आस्था है. गांव के घर-आंगन गोबर से लीपे गये हैं. पूरी प्रकृति समृद्ध दिखती है. यह दिव्य माहौल बचपन से ही महसूस करता आया हूं. दशहरा हर बार एक नयी ऊर्जा दे जाता है. दूर-दराज के रहनेवाले अपने गांव-शहर आते हैं. मैं अपने गांव की बात कहूं तो कुछ वर्ष पहले तक तो दशहरा जैसे त्योहार में बाहर रहनेवालों का गांव आना एक तरह से अनिवार्य था. लेकिन हाल के वर्षों में यह क्रम टूटा. नहीं आनेवालों की कई मजबूरियां होंगी. हाल के दिनों में इस तरह की मजबूरियां बढ़ी हैं. युवा पीढ़ी का एक बड़ा हिस्सा सामाजिक बुनावट से अलग होता दिखने लगा. इनमें से तो कई ने शायद इस शानदार सामाजिक माहौल का स्वाद भी नहीं चखा होगा. इस बार भी कई ऐसे घर हैं,
जहां ताला लगा रह गया. कई घरों में बूढ़ी आंखें बेटों के आने का आस लेकर इंतजार ही करती रही. सामाजिक संरचना में यह टूटन आखिर कैसे रुके. हालांकि दूसरी तरफ एक नया वर्ग है, जिनका दशहरा में आने का चलन बढ़ा है. ये भी कई वर्षों से नहीं आ पाते थे. इनकी भी कभी कई मजबूरियां थी. ये समृद्ध लोग हैं. जीवन के रेस में सफल माने जानेवाले लोग हैं. पूछने पर कहते हैं-सब कुछ मिलने के बाद, कुछ छूटता हुआ सा महसूस होता है. शायद उसी छूटे हुए को खोजते गांव तक पहुंचते हैं. सब कुछ मिलने के बाद भी बची रिक्तता को भरने आते हैं. तो आइये… दशहरा में मां दुर्गा की आराधना के साथ एक दिव्य सामाजिक माहौल का भी हम हिस्सा बने. रिक्तता खत्म हो. मां से प्रार्थना- समृद्ध सिर्फ बाहर से नहीं, अंदर से भी हों, इसका आशीष दें.