पूस की रात में महकी शाम-ए-महफिल-मुनव्वर राणा व डॉ राहत इंदौरी के नगमों, गजल व गीतों में डूबे श्रोतासंवाददाता, भागलपुरहरेक कुरसियों पर दिवाने बैठे हुए थे. हॉल का कोना-कोना दिवानों से भरा हुआ था. जिसको नहीं मिली कुरसी वह खड़े-खड़े ही शायरी, गीत व नज्म सुन अपनी ख्वाबों की ताबीर गढ़ रहा था. बाहर, रात ठंड की रजाई आेढ़े दुबकी हुई थी तो अंदर महफिल झूम रही थी. शेर-ओ-शायरी जब फिजाओं में गूंजी तो पूस की रात में शाम-ए-महफिल महक उठी. ये रात ऐसे ही महकी जैसे सर्द रातों में ओस की बूंदों से रात-रानी खिल कर जवां होती हैं. अवसर था प्रभात खबर के तत्वावधान में टाउनहाॅल में आयोजित कार्यक्रम शाम-ए-महफिल का. इस अवसर पर शेर-ओ-शायरी के बेताज बादशाह मुनव्वर राणा व डॉ राहत इंदौरी ने अपनी प्रस्तुतियां दी तो वक्त मानों थम सा गया. महफिल शेर-ओ-शायरी की धुन पर खूब नाची तो इसे सुन रात की आंखों में खुशी के आंसू आ गये. यूं तो इस शहर में कई दफा महफिले सजी और परवानों ने ख्वाबों के सातवे आसमां में सैर किया. लेकिन इस दफा सहने-भागलपुर ने अपनी गोद में अदब की महफिल आरास्ता करने की पूरी तैयारी कर ली थी. मुकद्दस गंगा की मौजों ने भी तरन्नुम में पिरोएं नगमों और गजलों के नशेबो-फराज पर बेतहाशा झूमने के लिए अपने कनारों से इजाजत ले ली थी. सर्द रात की नमी से नम मिट्टी भी अपने तहाें में दिलकश खुशबू का समंदर दबाएं बैठी थी. डाॅ राहत इंदौरी व मुन्नवर राणा की प्रस्तुतियों से गंगा की मौजें झूमी, मौसम साजगार भी रहा. सर्द राते भी भावों की गरमी से पिघली और अपने तहों खुशबू का समंदर दबाए बैठी थी और अपनी पलके झपक-झपक कर मुशायरे का लुत्फ उठाया. पता नहीं इन्होंने शौअरा-इकराम का भरम रखा या प्रोग्राम का सताइश की. लेकिन प्रोग्राम के इख्तिताम तक आते-आते शब से रहा न गया और अश्क बार हो गयी. लोगों ने शायद अश्कों को ओस का कतरा समझा हो, लेकिन शिकस्ता दिल खूब समझता है फर्क ओस और अश्क में. श्रोताआें में डॉ राहत इंदौरी व डॉ मुन्नवर राणा की प्रस्तुतियाें से पहली दफा सीधे रूबरू होने की इस कदर बेकरारी थी उन्हें एक-एक पल एक सदियां महसूस होती थी और दर्शक दीर्घा से कौतूहल मिश्रित आवाज उठ रही थी. देर शाम घड़ी की सूइयों ने 7:45 बजाये तो हॉल में शेरों की दुनिया के बादशाह मुनव्वर राणा और डॉ राहत इंदौरी के कदम पड़े तो लोगों ने तालियाें की गड़गड़ाहट के साथ उठकर शाही अंदाज में स्वागत किया. शाही अंदाज में हुए स्वागत से अभिभूत डॉ राहत इंदौरी ने शायरी से खुद को जोड़ा और बोले ‘फैसला जो कुछ भी हो मंजूर होना चाहिए, जंग हो या इश्क भरपूर होना चाहिए.’ इसके बाद मंच संभालते ही मुन्नवर राणा मातृभूमि के प्रति अपने इश्क का इजहार करते हुए बोलें ‘जिस्म पर मिट्टी मलेंगे पाक हो जायेंगे हम, जमीं इक दिन तेरी खुराक हो जायेंगे हम.’ हुकूमत पर तंज कसते हुए राणा साहेब ने कहा कि ‘ये जो कांधे पर सूरज लिये फिरते हैं, मर भी जाये तो मुन्नवर राणा नहीं होने वाले.’ फिर परिवार के बूढ़े सजर पर इन्होंने कुछ यूं कहा, ‘और कुछ रोज यूं ही बोझ उठा ले बेटा, चल दिये हम तो फिर मयस्सर नहीं होने वाले.’ इसके बाद कुछ पल डॉ राहत इंदौरी फिर मुन्नवर राणा. दोनों अपनी प्रस्तुतियों की गंगा-जमुना में श्रोताओं को डुबाते-उतराते रहे. डॉ राहत इंदौरी की चंद प्रस्तुतियां-आंख प्यासी है कोई मंजर दे दे, इस जजीरे को भी समंदर दे दे, फिर न कहना कि खुदकुशी है गुनाह, आज फुरसत है फैसला कर दे.-हर इक चेहरे को आइना न कहो, ये जिंदगी तो है रहमत इसे सजा न कहो, ये शहर है जहां राक्षस भी है राहत, हर इक तराशे हुए बुत को देवता न कहो. -उसकी कत्थई आंखों में हैं जंतर-मंतर सब, चाकू-वाकू, छुरियां-वुरियां, खंजर-वंजर सब, जिस दिन से तुम रूठी मुझसे रूठे हैं, चादर-वादर, तकिया-वकिया, बिस्तर-विस्तर सब, मुझसे बिछड़ कर वह भी कहां अब पहले जैसी है, फीके पड़ गये कपड़े-वपड़े, जेवर सब, आखिर मै किस दिन डूबूंगा फिक्रें करते हैं, कश्ती-वश्ती, दरिया-वरिया, लंगर-वंगर सब.-मस्जिदों के सहन तक जाना दुश्वार था, देर से निकला तो मेरे रास्ते में दार था, अपने ही फैलाओ के नशे में खोया था दरख्त, और हर मासूम टहनी पर फलों का भार था.-नींद से मेरा ताल्लुक नहीं बरसों से, ख्वाब आ आ के मेरी छत पर टहलते क्यूं हैं, मोड़ आता है जवानी का संभालने के लिये, और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यूं हैं.मुन्नवर राणा की चंद प्रस्तुतियां-लबों पे उसकी बद्दुआ नहीं होती, बस एक मां है जो कभी खफा नहीं होती, इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, मां बहुत गुस्से में होती है तो रो देती है.-मुहाजिर हैं मगर एक दुनियां छोड़ आये हैं, तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आये हैं, अकीदत से कलाई पर एक बच्ची ने राखी बांधी थी, वो राखी छोड़ आये हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं, सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहां जब थे, दिवाली छोड़ आये हैं दशहरा छोड़ आए हैं, कई आंखे अभी तक ये शिकायत करती रहती हैं, के हम बहते हुए काजल का दरिया छोड़ आए हैं.-सियासत नफरतों का जख्म भरने ही नहीं देती, जहां भरने पे आता है मक्खी बैठ जाती है, मै दुश्मन सही आवाज दे मुझको मुहब्बत से, सलीके से बिठाकर देख हड्डी बैठ जाती है.-मुहब्बत करने वालों में ये झगड़ा डाल देती है, सियासत दोस्ती की जड़ में मट्ठा डाल देती है, तबायफ की तरह अपनी गलतकारी के चेहरे पर, हुकूमत मंदिर और मस्जिद का परदा डाल देती है. -बुलंदी देर तक किस सख्श के हिस्से में रहती है, बहुत ऊंची इमारत हर घड़ी खतरे में रहती है, ये ऐसा कर्ज है जो मै अदा कर नहीं सकता, मै जब तक न लौटूं मेरी मां सजदे में रहती है. दिलों में जोड़ने का काम कर रहा प्रभात खबरअखबार तो बहुत होते हैं जो लोगों को समाचार देने का काम करते हैं लेकिन प्रभात खबर हिंदी-उर्दू पर आधारित इस महफिल के जरिये लोगों के दिलों को जोड़ने का काम कर रहा है. ये शब्द प्रभात खबर द्वारा आयोजित किये गये शाम-ए-महफिल में मशहूर शायर मुन्नवर राणा और राहत इंदौरी ने कहीं. दोनाें शायरों ने कहा कि समाचार की दुनियां में गंगा-जमुनी तहजीब का प्रचार-प्रसार करने का काम जो प्रभात खबर ने किया वह वाकई काबिलेतारीफ है.
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पूस की रात में महकी शाम-ए-महफिल
पूस की रात में महकी शाम-ए-महफिल-मुनव्वर राणा व डॉ राहत इंदौरी के नगमों, गजल व गीतों में डूबे श्रोतासंवाददाता, भागलपुरहरेक कुरसियों पर दिवाने बैठे हुए थे. हॉल का कोना-कोना दिवानों से भरा हुआ था. जिसको नहीं मिली कुरसी वह खड़े-खड़े ही शायरी, गीत व नज्म सुन अपनी ख्वाबों की ताबीर गढ़ रहा था. बाहर, रात […]
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