साहित्यकार का कॉलम ::: प्रतिरोध सही, लेकिन तरीका अनुचितधर्मेंद्र कुसुमफिलवक्त यह चर्चा बेमानी ही है कि आज जो साहित्यकार असहिष्णुता अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं, उनमें से अधिकतर लोग (दल विशेष से प्रतिबद्धता के कारण) वे हैं कि नहीं जो या तो आपातकाल का समर्थन कर रहे थे अथवा खामोश बैठे थे. मुद्दा यह भी नहीं है कि एमएम कलबुर्गी, नरेंद्र दावोलकर, गोविंद पानसरे और अखलाक की हत्या का सच क्या है. सवाल यह भी नहीं है कि इन घटनाओं का विरोध करनेवाले साहित्यकार वामपंथी हैं या कांग्रेसी. मौजूं सवाल यह है कि क्या हमारे समाज और मौजूदा शासनकाल में सचमुच असहिष्णुता बढ़ी है या फिर किन्हीं निहित उद्देश्यों के लिए इसे बढ़ा-चढ़ा कर प्रचारित-प्रसारित किया जा रहा है. गौरतलब है कि सदियों से चली आ रही हमारी पुरातन सभ्यता में बहुलतावाद हमारी विशिष्ट पहचान और मूल शक्ति रही है. हमारे बहुलतावादी चरित्र ने समय-समय पर कई परीक्षाएं पास की है. अपनी समावेशी और सहिष्णुता की शक्ति के कारण ही भारत फला-फूला है और पूरी दुनिया में जाना-पहचाना जाता है. हमारे संविधान के विभिन्न प्रावधानाें में भी इसकी झलक मिलती है. भारतीय समाज असहिष्णु हो ही नहीं सकता. भारत एक उदार लोकतंत्र है, जिसका शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व पर पूर्ण भरोसा है. लेकिन, इस तथ्य को भी झुठलाया नहीं जा सकता है कि बहुलता विरोधी ताकतें भी यदा-कदा अपनी सक्रियता से हमें चौंकाती रहती है. जाहिर है ऐसी हरकतों पर विरोध प्रकट किया ही जाना चाहिए, लेकिन ऐसी घटनाओं के विरोध में उठे साहित्यकारों को यह भी पता होना चाहिए कि उन्होंने जब साहित्य अकादमी पुरस्कार को ससम्मान स्वीकारा था, न तब यहां रामराज था और न आज रावणराज कायम हो गया है. परिस्थितियों तब भी उतनी ही बुरी अथवा अच्छी थी, जैसी आज है. अलबत्ता, पहले की तुलना में हमारा समाज और हमारी प्रशासनिक व्यवस्था शनै:-शनै: परिपक्व होकर ज्यादा उदार और लोकतांत्रिक ही हुई है. इसका प्रमाण है कि साहित्यकार निर्भय होकर आज अपना विरोध प्रकट कर पा रहे हैं. क्या यह सच नहीं है कि आपातकाल के दौरान ऐसा दु:स्साहस करना तो दूर इस तरह का विचार प्रकट कर देना भी दंडनीय अपराध समझा जाता था. इन तथ्यों के अतिरिक्त इतिहास गवाह है कि मुगल शासनकाल के दौरान जितने भक्तिगीतों और अंग्रेजों की गुलामी के दौरान जितनी देशभक्ति की रचनाएं रची गयी, उसकी मिसाल आजाद भारत में नहीं मिलती. बहरहाल, जिन घटनाओं से तथाकथित चंद साहित्यकार आक्रोशित हैं, उन घटनाओं को उनके ही अनुसार असहिष्णुता मान लिया जाये तो भी यही कहा जायेगा कि प्रतिरोध भले सही हो, लेकिन उसे व्यक्त करने का यह तरीका बिल्कुल ही अनुचित है.-वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार
साहत्यिकार का कॉलम ::: प्रतिरोध सही, लेकिन तरीका अनुचित
साहित्यकार का कॉलम ::: प्रतिरोध सही, लेकिन तरीका अनुचितधर्मेंद्र कुसुमफिलवक्त यह चर्चा बेमानी ही है कि आज जो साहित्यकार असहिष्णुता अथवा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हनन की चिंता में दुबले हुए जा रहे हैं, उनमें से अधिकतर लोग (दल विशेष से प्रतिबद्धता के कारण) वे हैं कि नहीं जो या तो आपातकाल का समर्थन कर […]
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