मधेपुरा जिले का आलमनगर राजवंश भी इसी राजा के राज्य की शाखा था. राजा की सातवीं पीढ़ी के वंशज आज भी मड़वा गांव में हैं. राजा के समय के बल्लम, तलवार, तांबा औरअष्टधातु के समान तथा एक छोटे आकार का तोप आज भी आलमनगर ड्योढ़ी में सुरक्षित हैं. उनकी दानशीलता इस क्षेत्र मेंं आज भी चर्चित है. बाबू झब्बन सिंह के वंश की सातवीं पीढ़ी के रामदेव सिंह, विष्णुदेव सिंह, सुखदेव सिंह आदि हैं. आठवीं पीढ़ी के वीर कुंवर सिंह ने बताया कि इस युद्व भूमि का नाम गणशहीदा इसलिए पड़ा कि यहां राजा के साथ इतने वीर शहीद हुए जिनकी कोई गणना नही ंहै. लेकिन, आज उन महान वीरों की धरोहर को संरक्षित रखने के प्रति सरकार उदासीन है.
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1857 के गदर का गवाह है बिहपुर का गणशहीदा मैदान
बिहपुर: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई जो ‘1857 के गदर’ के नाम से विख्यात है, की चर्चा आते ही बिहपुरवासियों का सीना गर्व से हिमालयी हो जाता है. यहां के लोग अपने वीर राजा बाबू झब्बन सिंह को उसी तरह याद करते हैं, जैसे बाबू वीर कुंवर सिंह को याद किया जाता है. दहस […]
बिहपुर: भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की पहली लड़ाई जो ‘1857 के गदर’ के नाम से विख्यात है, की चर्चा आते ही बिहपुरवासियों का सीना गर्व से हिमालयी हो जाता है. यहां के लोग अपने वीर राजा बाबू झब्बन सिंह को उसी तरह याद करते हैं, जैसे बाबू वीर कुंवर सिंह को याद किया जाता है. दहस मई 1857 के सिपाही विद्रोह के बाद बाबू वीर कुंवर सिंह बिहार में अंगरेजो ं के दांत खट्टे कर रहे थे. उसी समय बिहपुर प्रखंड के मड़वा स्थान के राजा बाबू झब्बन सिंह ने भी अंगरेजों की दमनकारी कृषि नीति, क्रूर कर वसूली ओर अपने स्वाभिमान की रक्षा के लिए विद्रोह का विगुल फूंक दिया था.
वर्तमान में बिहपुर रेलवे स्टेशन से डेढ़ किलोमीटर उत्तर व क्रातिकारियों की कर्मस्थली स्वराज आश्रम से एक किलोमीटर उत्तर में अवस्थित लगभग 20 एकड़ में फैले गणशहीदा मैदान में क्षेत्र के तत्कालीन वीर राजा झब्बन सिंह अपने 8800 सैनिकों के साथ लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गये थे. बाबू झब्बन सिंह चंद्रवंशी चंदेल राजा थे. उनके पूर्वज महोवागढ़ से आये थे.
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