भागलपुर : विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेले के साथ ही पवित्र सावन माह की दूसरी सोमवारी आ चुकी है. शिवभक्तों की कांवर यात्रा जारी है. कांवर के रून-झुन की मनमोहक आवाज और बाबा के जयकारे से पूरा कांवरिया मार्ग गूंजने लगा है. शिवभक्त केसरिया वस्त्र धारण कर कंधे पर कांवर में जल का पात्र लेकर कांवर से उठती रून-झुन की आवाज के बीच ‘बाबा नगरिया दूर है, जाना जरूर है’ आदि का जयघोष करते हुए बाबा की भक्ति में लीन होकर जलाभिषेक के लिए पैदल निकल
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गूंजने लगी कांवरों के रून-झुन की आवाज
भागलपुर : विश्व प्रसिद्ध श्रावणी मेले के साथ ही पवित्र सावन माह की दूसरी सोमवारी आ चुकी है. शिवभक्तों की कांवर यात्रा जारी है. कांवर के रून-झुन की मनमोहक आवाज और बाबा के जयकारे से पूरा कांवरिया मार्ग गूंजने लगा है. शिवभक्त केसरिया वस्त्र धारण कर कंधे पर कांवर में जल का पात्र लेकर कांवर […]
पड़े हैं. भागलपुर समेत आसपास के कई प्रांतों से शिवभक्त सुलतानगंज के अजगैबीनाथ धाम स्थित उत्तरवाहिनी गंगा घाट से पात्र में जल भरकर कांवर में रख पुरोहित से संकल्प कराकर बाबा को जलाभिषेक करने के लिए बाबा नगरी की ओर प्रस्थान करते हैं. इस दौरान शिवभक्त कांवर को आकर्षक बनाने के लिए उसमें कई तरह की सजावट भी करते हैं. खासकर उसमें घंटी, टुनटुनी, ित्रशूल आिद लगवाते हैं और उसी से चलते वक्त रून-झुन की मधुर आवाज निकलती है जिसे सुन कर शिवभक्त और भी भक्ति में लीन होकर चलते हैं.
सुलतानगंज से कोई साधारण बम तो कोई डाक बम के रूप में जल उठाते हैं. डाक बम तो पात्र में जल भर बैग में रख कांधे पर टांग कर दौड़ लगाते हैं लेकिन साधरन बम जल को कांवर पर रखकर अपनी यात्रा करते हैं. इस दौरान सबसे मनोरम दृश्य यह है कि जब खासकर सोमवार को डाक बम बाबा नगरी के दौड़ लगाते हैं तो उनकी सेवा में समितियों और संगठनों के अलावे सेवाभाव से स्थानीय लोग भी तत्पर दिखते हैं. उन लोगों का मानना है कि कांवरियों की सेवा से ही हमें बाबा का आर्शीवाद प्राप्त हो जाता है. वहीं दूसरी सोमवारी के साथ ही शिवभक्तों की भीड़ परवान चढ़ती जा रही है. कांवरियों की भीड़ बढ़ने के साथ एक मनोरम दृश्य भी बनने लगा है.
मान्यता है कि ये पवित्र माह भगवान भोलेनाथ को सबसे प्रिय है. पूरे महीने अपने आराध्य भगवान शिव का अभिषेक करने के लिए भक्तों में होड़ मची रहती है. लाखों कांवरिया प्रतिवर्ष श्रावण मास में कंधे पर जल से भरे कांवर लेकर पैदल यात्रा करके शिवधाम पहुंचते हैं. यह भी माना जाता है कि समुद्र मंथन में विष के असर को कम करने के लिए शिवजी ठंडे चंद्रमा को अपने मस्तक पर सुशोभित किया था. फिर सभी देवताओं ने भोलेनाथ को गंगाजल चढ़ाया. तब से सावन में कांवर यात्रा शुरू हो गयी.
सावन में ही कांवर यात्रा क्यों ?
सावन माह को शिव की स्तुति के लिए सर्वोत्तम माना गया है. इस माह में देश के सभी शिवालयों में भक्त शिव की अराधना के लिए पहुचते हैं. सावन माह में सोमवार के दिन का भी विशेष महत्व है. मान्यता है कि प्राचीन काल में इसी महीने में देवताओं और असुरों ने मिलकर समुद्रमंथन किया था, जिससे 14 प्रकार की वस्तुएं निकलीं थी. इसमें सबसे पहले कालकूट (हलाहल) या विष निकला जिसे देवाधिदेव शिव ने ग्रहण किया था. मान्यता के अनुसार विष की गर्मी से तप रहे शिव को ठंडा करने के लिए देवताओं ने उनका जलाभिषेक करना शुरू कर दिया था. वहीं प्रथा आज भी परंपरागत रूप में चली आ रही है.
कांवर यात्रा के दौरान सबसे जरूरी है शुद्धता का ध्यान
सावन महीने में कांवर यात्रा का महत्व तो है ही लेकिन उससे भी महत्वपूर्ण है यात्रा की शुद्धता का ध्यान रखना. यात्रा के दौरान खान-पान से लेकर रहन-सहन तक में शुद्धता का विशेष ध्यान रखा जाता है. कई भक्त इस दौरान सिर्फ फलाहार पर ही रहते हैं, तो कई अन्न भी ग्रहण करते हैं लेकिन बिना लहसुन-प्याज के. इतना ही नही कांवर यात्रा के दौरान अगर रास्ते में कहीं थकान मिटाने के लिए विश्राम भी करना पड़ता है तो दुबारा स्नान करके ही कांवर यात्रा शुरू की जाती है. यही नहीं इस पूरी यात्रा के दौरान इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि कांवर में बंधे जल के पात्र का स्पर्श जमीन से न होने पाए. साथ ही अगर शौच के लिए कांवर को कांधे से हटाने की आवश्यक्ता भी पड़े तो उसे किसी वृक्ष, खंभे या साथी कांवरिये को थोड़ी देर के लिए दे दिया जाता है. बाद में स्नान करके शुद्ध होकर तथा कांवर से क्षमा मांग कर ही दोबारा इसे कंधे पर धारण किया जाता है.
भगवान श्रीराम और महाबली हनुमान ने भी की थी कांवर यात्रा
प्राचीन ग्रंथों के अनुसार रामायण काल में श्रवण कुमार की कथा मिलती है. कथानुसार श्रवण कुमार अपने अंधे पर माता-पिता को कांवर में बिठाकर तीर्थाटन पर निकले थे. इस दौरान उन्होंने बाबा बैद्यनाथ धाम पहुंचकर जलाभिषेक भी किया था. यही नहीं आनंद रामायण के अनुसार भगवान श्रीराम और महाबली हनुमान ने भी सुलतानगंज में गंगा स्नान किया था और कांवर में जल भरकर बाबा बैद्यनाथ का जलाभिषेक किया था. उसके बाद से ही कांवर यात्रा के परंपरा की शुरुआत की गयी.
डाक बम व साधारण कांवरियों में अंतर
कांवर यात्रा करने वाले भक्त तीन प्रकार के होते हैं। पहले साधरण कांवरिया, दूसरे डाक बम और तीसरे होते हैं दांडी बम। साधारण कांवरिए जल भरने के बाद शिवमंदिरों की ओर पैदल यात्रा पर निकलते हैं। मार्ग लंबा हो तो साधारण कांवरिए आवश्यकतानुसार विश्राम भी करते हैं। साधारण कांवरियों की यात्रा सुलतानगंज से शुरू होकर चार-पांच दिनों में देवघर पहुंचती है. डाक बम कांवरिए अपने पात्रों में जल भरने के बाद शुरू की गई यात्रा को हर हाल में अगले 24 घंटे के भीतर पूरा करने का संकल्प लेते हैं. इस दौरान डाक बम कांवरिये दौड़ते हुए सुल्तानगंज से 110 किमी दूर देवघर पहुंचते हैं. इन कांवरियों के लिए रास्ते में सेवा समितियों और सामाजिक संस्थाओं के लोग जल की वर्षा करते हैं और कांवरियों के शरीर में ऊर्जा बनी रहे इसके लिए उन्हें फल और शर्बत भी िदये जाते हैं. रोचक बात यह है कि स्थानीय लोगों और स्वयंसेवी संस्थाओं की ओर से डाक बम पर जल वर्षा और जूस पिलाने का कार्य भी इन कांवरियों के साथ-साथ दौड़ते हुए ही पूरा किया जाता है. वहीं दांडी कांवरिये सुलतानगंज से जल भरने के बाद जमीन पर लेटते हुए 110 किमी की लंबी और अत्यंत कठिन यात्रा को पूरा करते हैं. बताया जाता है कि दांडी बम कांवरियों को यात्रा पूरी करने में दस से बारह दिन लग जाते हैं.
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