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मुगलकाल से ही अटूट आस्था का केंद्र है बखरी का पुरानी दुर्गा मंदिर

मुगलकाल से ही अटूट आस्था का केंद्र है बखरी का पुरानी दुर्गा मंदिरतसवीर-2,-आस्था का केंद्र बखरी का आदि शक्तिपीठ मंदिरभक्तों का उमड़ता है जनसैलाब, मां के दरबार में आनेवाले भक्तों की मन्नतें होती हैं पूरी बेगूसराय/बखरी़ शक्ति पीठ पुरानी दुर्गा मंदिर मुगलकाल से ही अटूट आस्था व भक्ति का केंद्र बना हुआ है. इस मां […]

मुगलकाल से ही अटूट आस्था का केंद्र है बखरी का पुरानी दुर्गा मंदिरतसवीर-2,-आस्था का केंद्र बखरी का आदि शक्तिपीठ मंदिरभक्तों का उमड़ता है जनसैलाब, मां के दरबार में आनेवाले भक्तों की मन्नतें होती हैं पूरी बेगूसराय/बखरी़ शक्ति पीठ पुरानी दुर्गा मंदिर मुगलकाल से ही अटूट आस्था व भक्ति का केंद्र बना हुआ है. इस मां की महिमा अतिप्राचीन है. इसी का नतीजा है कि आश्विन मास में लगनेवाले तीन दिवसीय मेले में यूपी, छतीसगढ़,पश्चिम बंगाल, असम एवं अन्य राज्यों से साधक इस शक्ति पीठ में पहुंच कर अपनी साधना को पूर्ण करते हैं. बखरी के इस ऐतिहासिक मंदिर की प्राचीन मान्यताओं के बारे में बताया जाता है कि यह मंदिर में पूर्व में मिट्टी का बना हुआ था. बीते वर्ष के साथ इसका स्वरूप बदलता गया. और भक्तों की आस्था बढ़ती गयी. कहा जाता है कि मां यहां साक्षात उपस्थित हैं. सच्चे मन से जो भी भक्त माता के दरबार में मन्नतें मांगता है, माता उसकी मुरादें अवश्य पूरी करती हैं. बताया जाता है कि मध्यप्रदेश के धारनगरी से आये परमारवंशीय राजाओं के द्वारा इस शक्तिपीठ को स्थापित किया गया था. स्थापना काल में यहां अष्टभुजी देवी भगवती की सोने की प्रतिमा थी. जो वर्तमान में सहरसा जिले के भोटिया सरौंजा दुर्गामंदिर में स्थापित है. इस संबंध में कहा जाता है कि निशानेबाज में अव्वल राजा लक्ष्मीचंद शाही के परपोते व राजा जगत सिंह के बेटे थान सिंह व मान सिंह ने निशानेबाजी को देख तत्कालीन नवाब प्रसन्न हुए. नवाब ने दोनों को कहा कि गंगा के उस पार दिन भर में जितने मुल्क तक घोड़े को ले जा सकोगे, वहां तक तुम्हारा साम्राज्य मान लिया जायेगा. यह सुन कर दोनों भाइयों ने गंगा में डुबकी लगायी. बताया जाता है कि इसी क्रम में थान सिंह के हाथ में अष्टधातु की एक माता भगवती की मूर्ति आ गयी. बताया जाता है कि मूर्ति की पूजा-अर्चना के बाद दोनों भाइयों ने अपने-अपने घोड़ों को दो दिशाओं में दौड़ा कर एक राज्य से दूसरे राज्य पर आधिपत्य कायम करते हुए देवी अष्टभुजी की स्वर्ण प्रतिमा को अपने अधिकार क्षेत्र बखरी में स्थापित कर दिया. बताया जाता है कि कुछ समय के पश्चात थान सिंह के बड़े बेटे अमर सिंह ने देवी की प्रतिमा को छलपूर्वक उठा कर अपने अधीनस्थ क्षेत्र सहरसा जिले के सरौंजा में स्थापित कर दिया. इसी बीच मां ने स्वप्न दिया कि मेरी मूर्ति चली गयी है लेकिन मैं यहीं स्थापित हूं. मेरी मिट्टी की प्रतिमा बना कर पूजा करो. और यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है. बताया जाता है कि अष्टमी की रात में बिहार ही नहीं देश के कई हिस्सों से लोग सिद्धि प्राप्त के लिए पहुंचते हैं. शाम ढलते ही तंत्र साधक विभिन्न मुद्राओं में तल्लीन हो जाते हैं. साधना का कार्य अष्टमी की रात्रि में माता के पट खुलने तक चलता रहता है. बताया जाता है कि मां को प्रसन्न करने के लिए सैकड़ों की संख्या में छागड़ की बलि दी जाती है. इसी दिन संध्या में भैंसे का बलि प्रदान किये जाने की प्रथा है. इस प्राचीन मंदिर में सच्चे मन से झोली फैलानेवाले अब तक निराश होकर नहीं लौटे हैं. माता यहां साक्षात होकर लोगों की पीड़ा को सुन कर उसका कल्याण करती हैं. बनाया जा रहा है आकर्षक पंडालमाता की महिमा और आनेवाले भक्तों की भीड़ को देखते हुए पूजा समिति के द्वारा आकर्षक पंडाल बनाया जा रहा है. माता के दर्शन और अाराधना के लिए लोगों का आना शुरू हो गया है. चारों तरफ लोग मां की भक्ति में सराबोर हो रहे हैं. मां के मंदिर से निकल रहे वैदिक मंत्रोच्चार से पूरा इलाका भक्तिमय बना हुआ है.

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