Advertisement
आधुनिकता के दौर में गुम हो गयी कजरी
चिट्ठी लिखीये लिखी बाबा मोर भेजवाले, बेटी चल अहिया कजरी खेलनावा हाय रे सावन वा मदनपुर : भले ही हम नेटवर्किंग, ऑनलाइन, मोबाइल व अत्याधुनिक युग की चकाचौंध में गुम हो रहे हैं. लेकिन हमें अपनी परंपराओं को संजोने की जरूरत है. आज हम लोग अपनी परंपरा व पारंपरिक गीतों को भुलाते जा रहे है. […]
चिट्ठी लिखीये लिखी बाबा मोर भेजवाले, बेटी चल अहिया कजरी खेलनावा हाय रे सावन वा
मदनपुर : भले ही हम नेटवर्किंग, ऑनलाइन, मोबाइल व अत्याधुनिक युग की चकाचौंध में गुम हो रहे हैं. लेकिन हमें अपनी परंपराओं को संजोने की जरूरत है. आज हम लोग अपनी परंपरा व पारंपरिक गीतों को भुलाते जा रहे है. इस कड़ी में सावन माह में कजरी की अलग पहचान है, लेकिन अब कहीं भी कजरी की धुन नहीं सुनाई पड़ती. सावन का चौथा सोमवार भी बीत गया, लेकिन कहीं भी झूला व कजरी गीतों की धुन सुनाई नहीं दी. कालांतर में कजरी की धुन इतनी लोकप्रिय हुई कि शास्त्रीय संगीत के घरानों ने भी इसे अपना कर वाहवाही लूटी.
उमड़ते बादल को खूब भाती है कजरी : एक जमाना था, जब सावन महीना शुरू होते ही कजरी की धुन सुनाई पड़ने लगती थी. जिसे सुनने को आवारा बादल भी रुक जाते थे और ना चाहते हुए भी विरह-वेदना से व्यथित काले कजरारे नैनों से बारिश के रूप में आंसू टपकाने लगते थे, लेकिन आज वह गुजरे जमाने की बात हो गई. कजरी एक धुन है, जिसे सावन में रिमझिम फुहारों के बीच गाया जाता है. पेड की टहनियों पर झूला लगा कर बालाएं व महिलाएं उसपर झूलते हुए कभी खूब गाती थी. मान्यता है कि बरसात में काले बादल देख नयी नवेलियों का मन झूम उठता है, तो बगीचों में पेड़ की डालियों पर झूले लगा परदेश गए पिया की याद कजरी के रूप में फूट पड़ती है.
‘काशी बसल शिव के त्रिशूल हो,चला न झूला झूल आवे ननदो’,:गायक अनूप सिन्हा कजरी के धुन को याद कर गुनगुनाते हुए कहते हैं कि ‘चिट्ठी या लिखिए लिखी बाबा मोर भेजावले ,बेटी चल अहिया कजरी खेलनवा हाय रे सावनवा’, जैसी धुन अब नहीं सुनाई देती.
यह कजरी गीत इतनी लोकप्रिय थी कि इसे हर घरों में गाया जाता था. गायिका रेखा झा ‘हरि -हरि सावन में लागेला सोमारी’,’काशी बसल शिव के त्रिशूल हो,चला न झूला झूल आवे ननदो’, ‘हरे रामा कृष्ण बनी बने मनिहारी,पहन लिए सारी ऐ हरि’ आदि गीतों का धुन गुनगुनाते हुये अफसोस जताया कि आज के दौर में गायक और गीतकार भी ऐसे गीतों से दूरी बना रहे है, जिससे यह विद्या दूर होती जा रही है.
विदेशों में भी काफी लोकप्रिय है कजरी : वैसे तो खासकर सभी भोजपुरी भाषी क्षेत्र में ही कजरी गायी जाती है,लेकिन उत्तर भारत के अलावा कजरी के दीवाने मॉरीशस,सूरीनाम एवं त्रिनिदाद जैसे भोजपुरी भाषी देशों में भी है. जहां भोजपुरी के नामचीन गायकों द्वारा स्टेज शो में इस पारंपरिक कजरी की फरमाइश होती है.
जीवन को प्राकृतिक स्पर्श से जोड़ती है कजरी
जीवनशैली में बदलाव के कारण सावन के सदाबहार कजरी की उत्पत्ति कब और कैसे हुई यह कहना कठिन है. परंतु यह तो निश्चित है कि मानव को जब स्वर व शब्द मिले और जब लोकजीवन को प्रकृति का कोमल स्पर्श मिला होगा, उसी समय से कजरी हमारे बीच है. फिल्म मेकर धर्मवीर भारती बताते हैं कि संगीत विद्या में दो राग प्रमुख है. कजरी को भोजपुरी भाषा वाले क्षेत्र में राग मल्हार की रागनी माना जाता है. ऐसे कजरी का सैकड़ों साल पुराना इतिहास है .
Prabhat Khabar App :
देश, एजुकेशन, मनोरंजन, बिजनेस अपडेट, धर्म, क्रिकेट, राशिफल की ताजा खबरें पढ़ें यहां. रोजाना की ब्रेकिंग हिंदी न्यूज और लाइव न्यूज कवरेज के लिए डाउनलोड करिए
Advertisement