औराई बांध से शैलेंद्र/रवींद्र
कलम के जादूगर रामवृक्ष बेनीपुरी, जिन्होंने पचास के दशक में विधायक बन कर इलाके के विकास की रूपरेखा खींची थी. गांधी वाचनालय से लेकर महाविद्यालय तक की स्थापना उनकी परिकल्पना में शामिल था, लेकिन उसी धरती पर 2014 में विस्थापितों का बड़ा समूह रहता है. जिनकी जिंदगी भगवान भरोसे है. किसी तरह की सुविधा नहीं.
मुजफ्फरपुर स्टेशन पर सीतामढ़ी पैसेंजर ट्रेन में सवार होते हुये ऐसे विचार मन में आ रहे थे. लगभग डेढ़ घंटे की देरी से रवाना हुई ट्रेन को तीस किलोमीटर का रास्ता तय करने में एक घंटे से ज्यादा लग गया. रामवृक्ष बेनीपुर हॉल्ट पर उतरते ही सच्चई सामने थी. ट्रेन के गुजरते ही चारों ओर घुप्प अंधेरा. इससे पहले ट्रेन के डिब्बों में जलनेवाले बल्बों से हॉल्ट भी रोशन था.
मरने के लिए छोड़ दिया
हॉल्ट के साथ ही बांध का इलाका शुरू होता है. यहां रात में रोशनी का एकमात्र साधन टार्च है, जो बांध पर रहनेवाले लगभग हर विस्थापित परिवार के लिए सबसे बड़ा हथियार नजर आता है. चाहे एक टाइम भोजन नहीं मिले, लेकिन टार्च में सेल होने चाहिए. जैसे ही हम बांध पर आगे बढ़े. कुछ महिलाओं ने घेर लिया. स्थानीय भाषा में कहने लगीं, आते हैं, चले जाते हैं. कुछ देते भी नहीं. अपने तो मुजफ्फरपुर में रहते हैं. हम सबको यहां बांध पर मरने के लिए छोड़ दिया है. किसी तरह से समझा-बुझा कर हम आगे बढ़ते हैं, लेकिन ये तो शुरुआत भर थी. अभी शाम के लगभग साढ़े सात बजे थे. बांध पर रहनेवाले ज्यादातर घरों के लोग सोने की तैयारी में थे.
बनैया सुअर से डर
चंद कदम आगे बढ़ते ही हमारी नजर सोगारत मांझी पर पड़ती है. वो अपने बेटे के साथ खाना खा रहे हैं. पत्नी चूल्हे से गर्म रोटियां सेंक कर दे रही थी. थाली में तरकारी के कुछ टुकड़े. दिन भर की जद्दोजहद के बाद सोगारत को यही नसीब हुआ है. हम लोगों को देखते ही सोगारत व उसका परिवार ठिठक जाता है. जैसे ही उन्हें पता चलता है, वो अपनी परेशानियां बताने लगते हैं. कहते हैं, रात में जब बनैया सुअर बोलता है, तो डर बढ़ जाता है. जमीन पर सोते हैं. सांफ-बिच्छू का खतरा हमेशा रहता है. एक बच्चे को बुखार है. दवाई नहीं करा पा रहे हैं. यहां किसी तरह की व्यवस्था नहीं है.
सीने पर रख ली बकरी
गूदड़ मांझी व पानो देवी पांच साल से बांध पर शरण लिये हुये हैं. कहते हैं, हम बेनीपुर गांव के रहनेवाले थे, जब बांध बना, तो गांव में गुजारा मुश्किल हो गया. इस वजह से बांध पर आ गये. अब टूटी नाव की लकड़ी पर सोते हैं. इसे सड़क पर ही रख दिया है. आगे कुछ दूर पर झाड़ियों के बीच सोये राजेश्वर सहनी अपने भतीजों को राजा नल सिंह व ब्राह्मण की कहानी सुना रहे हैं. जब हम उनके पास पहुंचे, तो राजा नल सिंह को ब्राह्मण के श्रप देने का प्रसंग सुना रहे थे. भतीजा धीरज ध्यान से कहानी सुन रहा था. पास में ही एक बच्च अपने परिवार के साथ बकरी को सीने पर रखे हुये सो रहा था.
मोबाइल से सिनेमा
बेनीपुर बांध से आगे अतरार की ओर बढ़ने पर कुछ युवक मोबाइल पर सिनेमा देख रहे थे. बांध पर मनोरंजन का ऐसा साधन जिसमें आवाज के साथ तसवीर भी दिखायी देती है. भोजपुरी फिल्म पर ये सभी जम कर ठहाके लगा रहे थे. इनमें से ज्यादातर युवक मजदूरी करते हैं. रोज नया काम खोजना पड़ता है. कभी मुजफ्फरपुर जाते हैं, तो कभी पास के रून्नीसैदपुर में ही काम मिल जाता है. मोबाइल कैसे चार्ज होता है, इस सवाल पर युवक कहते हैं, बांध के नीचे कुछ घरों में सोलर लाइट है. वहीं से चार्ज कर लेते हैं.
सप्ताह भर दी खिचड़ी
अतरार में बांध पर बारा खुर्द के लोग रहते हैं. इनके लिए प्रशासन की ओर से कुछ टेंट की व्यवस्था की गयी है, लेकिन नाकाफी लगता है. एक-एक टेंट में जरूरत से ज्यादा लोग हैं. टुन्ना मांझी के परिवार में एक दर्जन से ज्यादा बच्चे हैं. ये सब एक ही टेंट में सो रहे थे. उसमें पैर रखने तक की जगह नहीं थी. बच्चे अगर करवट लेना चाहें, तो उसकी भी जगह नहीं. परिवार की महिलाएं व पुरुष बैठ कर किसी तरह झपकी ले रहे थे. ये बताते हैं, सात दिन तक सरकार की ओर से खिचड़ी मिली थी. उस समय रोज दो किलो चूड़ा भी मिलता था, लेकिन अब कुछ नहीं मिल रहा.
बीमारों का इलाज नहीं
अतरार के रहनेवाले शिव सहनी बीमार हैं. सर्दी-बुखार है, लेकिन इलाज का कोई साधन नहीं. पचहत्तर साल की सुदामा देवी की हालत ठीक नहीं है. मुसमात (विधवा) हैं. बच्चे कमाने के लिए बाहर गये हैं. पानी तक देनेवाला कोई नहीं है. कहती हैं, किसी तरह से जिंदगी चल रही है. अगर कुछ मदद हो सके, तो करवा दो बउआ. पास में रहनेवाले विजय सहनी पांच साल से बांध पर रहते हैं. कहते हैं, आज तक किसी तरह की सहायता नहीं मिली. भगवान भरोसे ही काम चल रहा है.
छाप दो फोटो
बांध पर रहनेवाले हर परिवार को बाहरी व्यक्ति मददगार नजर आता है. ये लोग बड़ी आशा के साथ पास में आते हैं. कहते हैं, हमारे नाम का भी लाल कार्ड बनवा दीजिये. सरकार की ओर से मिलनेवाली सहायता दिलवा दीजिये. हम लोग खुले आसमान के नीचे रह रहे हैं. जब इन्हें पता चलता है अखबार वाले हैं, तो कहते हैं, हमारा भी फोटो छाप दीजिये. सरकार देखेगी, तो सहायता मिलेगी. जारी.
दूध का सहारा
रात आठ बजते-बजते विस्थापितों की बस्ती में सन्नाटा पसर जाता है. एक-दुक्का घरों में ही लोग जग रहे हैं. इस बीच मोटरसाइकिल की आवाज आती है, तो आसपास के लोग कहते हैं, डेयरी के लोग दूध लेने के लिए आते हैं. इसी दौरान पता चलता है. विस्थापितों की आय का बड़ा स्नेत भैंस हैं. उनके लिए दिन में नदी पार करके चारा लाते हैं. उन्हीं का जो दूध बिकता है, उसी से परिवार का खर्च चलता है. इसके अलावा इन परिवारों के लोग कमाने के लिए दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों में गये हैं. वहां से कमा कर भेजते हैं, तो घर का खर्च चलता है.