नयी दिल्ली : सवा सौ करोड़ की आबादी वाले हमारे देश में दुनिया के खेलों के नक्शे पर सुनहरी ताबीर लिखने वाले लोग कम ही हैं, लेकिन हरियाणा के एक गांव की मिट्टी में सोने के तमगे जीतने वाले चैंपियन पैदा करने की तासीर है और महावीर फोगाट जैसे लोग दशकों से ‘‘छोरियों को छोरों” के बराबर लाने की जिद ठाने हैं. राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने वाली फोगाट बहनों गीता और बबिता से देश का बच्चा बच्चा वाकिफ है. उनके पिता और द्रोणाचार्य पुरस्कार से सम्मानित महावीर फोगाट का नाम एक बार फिर चर्चा में है क्योंकि उनसे कुश्ती के गुर सीखने वाली उनकी भतीजी विनेश फोगाट ने जकार्ता में चल रहे 18वें एशियाई खेलों की कुश्ती स्पर्धा में स्वर्ण पदक जीतकर इतिहास रच दिया है.
एशियाई खेलों में भारत की किसी महिला पहलवान की यह पहली स्वर्णिम सफलता है. हरियाणा के भिवानी जिले का बलाली गांव देश का ऐसा चर्चित गांव है, जहां की मिट्टी देश के लिए सोना जीतने वाले चैंपियन पैदा करती है. एक ही परिवार की लड़कियां राष्ट्रमंडल खेलों में स्वर्ण पदक जीतने के बाद अब एशियाई खेलों में सुनहरी रास्ते पर निकल पड़ी हैं. इन लड़कियों को यह पदक यूं ही नहीं मिल गए, इसके लिए एक शख्स ने दशकों पसीना बहाया है. ‘सख्त पिता’ और ‘जिद्दी कोच’ होने की तोहमत झेली है, दोस्तों, पड़ोसियों और रिश्तेदारों के ताने सहे हैं और इस सबसे ज्यादा अपनी छोरियों को छोरों के बराबर लाने की जिद को पूरा करने के लिए यह पिता दशकों से पूरी नींद नहीं सोया.
महावीर फोगाट वह शख्स हैं, जिन्होंने हरियाणा जैसे राज्य में लड़कियों को घर से बाहर निकालने और अखाड़ों में लड़कों के साथ कुश्ती लड़वाने की हिम्मत दिखायी. महाबीर फोगाट के पिता मान सिंह गांवों में कुश्ती लड़ते थे. इसलिए महावीर को यह गुण विरासत में मिला. वह खुद 15 साल की उम्र से पहलवानी कर रहे हैं और राष्ट्रीय स्तर पर कई कुश्तियां लड़ चुके हैं. अपने बेटों को विश्व स्तरीय पहलवान बनाने का सपना देखने वाले महावीर फोगाट के घर जब एक के बाद एक दो बेटियां गीता और बबीता पैदा हुईं तो उन्हें अपने सपने के दरकने का दर्द अंदर तक सालने लगा, लेकिन फिर उन्होंने पत्नी दया कौर के साथ मिलकर बेटियों को ही अखाड़े में उतारने का फैसला किया और खुद से ही सवाल किया, ‘‘म्हारी छोरियां, छोरों से कम हैं के.”
बेटियों को ट्रेनिंग और कोचिंग देना तो उनके बस में था, लेकिन उन्हें दंगल और अखाड़ों में ले जाना संभव नहीं था क्योंकि उनकी बेटियों के अलावा आसपास के गांव में कोई पहलवान लड़कियां थी ही नहीं. ऐसे में उन्होंने लड़कियों को लड़कों के साथ मैदान में उतारने का फैसला किया. महावीर फोगाट के मुताबिक, ‘‘ गीता और बबिता को जब मैंने अखाड़े में लाना शुरू किया तो गांव के लोगों ने विरोध किया। वह लोग भी आलोचना करने लगे जो साथ उठते-बैठते थे। लेकिन मैंने किसी की नहीं सुनी.” उन्होंने कहा, ‘‘ मेरे गांव की कुछ लड़कियां कुश्ती लड़ने में मेरी बेटियों से भी अच्छी थीं लेकिन लोगों के विरोध के कारण उनके घर के लोगो ने उन्हें अखाड़े में उतरने नहीं दिया, लेकिन आज वह लोग पछता रहे हैं। मैंने बेटियों को मजबूरी में लड़कों के साथ कुश्ती की प्रैक्टिस करायी” अब उन्होंने अपने घर में अखाड़ा बनाया हुआ है, जहां छोटी-छोटी लड़कियां अपनी उम्र के लड़कों के साथ कुश्ती लड़ती हैं. वह खुद सुबह चार बजे उठकर बच्चियों को कुश्ती की ट्रेनिंग देते हैं.
कुश्ती पुरुषों की जागीर नहीं है यह इन बेटियों ने साबित किया है. आज हरियाणा में महिला कुश्ती के कम से कम 50 अखाड़े चल रहे हैं. बेटियों को प्रशिक्षण देते समय महावीर फोगाट एक सख्त कोच हुआ करते थे. विनेश कोचिंग के उन पुराने दिनों को याद करते हुए कहती हैं कि ताऊजी ट्रेनिंग में कोई कोताही नहीं बरतते थे और ट्रेनिंग के समय उनके हाथ में छड़ी रहती थी. उस समय भले वह क्रूर कोच नजर आते थे, लेकिन आज विनेश मानती हैं कि अगर ताऊजीने सख्त ट्रेनिंग न दी होती, तो शायद वह अंतरराष्ट्रीय खेल मंचों पर भारत का प्रतिनिधित्व नहीं कर रही होतीं. राष्ट्रीय स्तर के पहलवान महावीर फोगाट की चार बेटियां और एक बेटा है, जिन्हें उन्होंने पहलवान बनाया है और अपने भाई की दो बेटियों को भी एक पिता की ही तरह पाला और पहलवानी के गुर सिखाए हैं.
विनेश उनके भाई की ही बेटी है. इस परिवार की सभी बेटियां अन्तरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश का नाम रौशन कर चुकी हैं. महावीर का सपना है कि उनकी बेटियां एक बार ओलंपिक में देश का परचम लहराएं और उम्मीद करनी चाहिए कि 2020 के तोक्यो ओलंपिक खेलों में उनकी ‘‘छोरियां” एक बार फिर अखाड़े में सोने की फसल लहलहाएंगी.