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ध्यान और मौन
जब आप अपना सिर क्षितिज को देखते हुए, दूसरी ओर घुमाते हैं, तो आप की आंखें एक वृहत आकाश देखती हैं, जिसमें धरती और आसमान की सारी चीजें नजर आती हैं. लेकिन यह रिक्त आकाश वहां बहुत ही सीमित हो जाता है, जहां आकाश से धरती मिलती है. हमारे मन का आकाश बहुत ही छोटा […]
जब आप अपना सिर क्षितिज को देखते हुए, दूसरी ओर घुमाते हैं, तो आप की आंखें एक वृहत आकाश देखती हैं, जिसमें धरती और आसमान की सारी चीजें नजर आती हैं. लेकिन यह रिक्त आकाश वहां बहुत ही सीमित हो जाता है, जहां आकाश से धरती मिलती है. हमारे मन का आकाश बहुत ही छोटा है, जिसमें हमारी सारी गतिविधियां घटित होती हैं. इसी सीमित आकाश में मन स्वतंत्रता ढूंढता है और हमेशा अपना ही बंदी बना रहता है.
ध्यान है इस सीमित आकाश का अंत करना. हमारे लिए कर्म का आशय है मन के इस छोटे से अवकाश में व्यवस्था लाना. लेकिन इसके अतिरिक्त भी हमारे कई कर्म ऐसे हैं, जो इस छोटी सी जगह को व्यवस्थित नहीं रहने देते. ध्यान वह कर्म है, जो तब घटित होता है, जब मन अपना छोटा सा आकाश, सीमित दायरा खो देता है. वह वृहत आकाश जिसमें मन, ‘मैं’ या अहं सहित नहीं पहुंच पाता वह है मौन.
मन स्वयं में, कभी भी मौन में नहीं रह सकता; यह मौन में तभी होता है, जब यह उस वृहत आकाश में पहुंच जाता है, जिसे विचार स्पर्श नहीं कर पाता. इसी मौन से वह कर्म उपजता है, जो विचार की पृष्ठभूमि से नहीं आता. ध्यान ही मौन है या मौन ही ध्यान है!
– जे कृष्णमूर्ति
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